Book Title: Naykarnika
Author(s): Vinayvijay, Sureshchandra Shastri
Publisher: Sanmati Gyanpith

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Page 84
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir " न समेति न य समेया, सम्मत्तं न वि य वत्थुणो गमया । वत्थुविधायाय नया, विरोहयो वेरिणो चैव ॥ विशेषा०, २२६६ इस प्रश्न का समाधान भी उन्होंने स्पष्ट रोति से किया है । उनका कहना है कि - - " परस्पर विरुद्ध होते हुए भी नय एकत्रित होते हैं और सम्यक्त्व-भाव को प्राप्त करते हैं। जैसे परस्पर विरोध रखने वाले नौकरों को न्यायदर्शी राजा उचित उपाय से उनका वैर-विरोध दूर करके उन्हें एकत्रित करता है, और उनसे मनचाहा काम लेता है । अथवा धन, धान्य, भूमि आदि के लिए झगड़ा करने वाले लोगों को कोई न्यायशील मध्यस्थ व्यक्ति उनके झगड़े के कारण को युक्ति द्वारा दूर करके उन्हें समुदित रूप में सन्मार्ग पर लगा देता है । उसी प्रकार परस्पर विरोधी नयों को न्यायाधीश के रूप जैनदर्शन भी उनके एकान्त निश्चयरूप विरोध के कारण को दूर कर देता है, तो वे सम्यकसच्चे बन जाते हैं- " सव्वे समेति सम्मं, चेगवसाओ नया विरुद्धा वि । भिच्च ववहारिणो इव, राश्रदासीणवसवत्ती || For Private And Personal Use Only विशेषा०, २२६७ [ ६१

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