Book Title: Naykarnika
Author(s): Vinayvijay, Sureshchandra Shastri
Publisher: Sanmati Gyanpith

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Page 82
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 144 www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir और हाथ जोड़कर बोला - " अध्यापक जी !” सारांश यह कि उसी एक व्यक्ति को कोई चचा कहता है, कोई ताऊ कहता है, कोई मामा और कोई भानजा । सब आपस में झगड़ते हैं - "यह तो पिता ही है, पुत्र ही है, भाई ही है, अध्यापक ही है, चचा ही है, मामा ही है, भानजा ही है ।" अब बतलाइये फैसला कैसे हो ? उनका पारस्परिक संघर्ष कैसे मिटे ? --- यहाँ पर हमें जैन-दर्शन के नयवाद को निर्णायक बनाना पड़ेगा । नयवाद पहले बालक से कहेगा - "हाँ, यह पिता भी है। पर, तुम्हारे लिए ही तो पिता है; क्योंकि तुम इसके पुत्र हो । और सारी दुनिया का तो यह पिता नहीं है ।" बूढ़े से से कहता है—“हाँ, यह पुत्र भी है । तुम्हारी अपेक्षा से ही यह पुत्र है, सब लोगों की अपेक्षा से तो नहीं । क्या यह समूचे संसार का पुत्र है ?" अभिप्राय यह है कि यह एक ही व्यक्ति अपने पुत्र की अपेक्षा से पिता भी है, अपने भाई की अपेक्षा से भाई भी है, विद्यार्थी की अपेक्षा से अध्यापक भी है । इसी तरह अपनी-अपनी अपेक्षा-दृष्टि से चचा, ताऊ, मामा, भानजा, पति, मित्र सब है। एक ही व्यक्ति में अनेक विरोधी धर्म रह रहे हैं, पर भिन्न-भिन्न अपेक्षा से । इस प्रकार 'नयवाद' पारस्परिक विरोध एवं संघर्ष को मिटाकर हमारी दृष्टि को विशाल बनाता [ ५६ For Private And Personal Use Only

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