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प्रयास के द्वारा उपाध्यायश्री जी ने भगवान महावीर की पूजा की है।
पूजा का अर्थ सत्कार एवं सम्मान करना मात्र है । और वह सत्कार-सम्मान एवं पूजा व्यक्तित्व के अनुसार किये जाने पर ही सच्चे एवं सार्थक हो सकते हैं । तीर्थंकरों का जीवन इतना निर्मल तथा स्वच्छ होता है कि पाप वहाँ श्रास-पास भी कभी नहीं झाँक पाता। अतः उस उच्च एवं निर्मल व्यक्तित्व के प्रति की गई हिंसाकारी एवं पापकारी पूजा कैसे सच्ची हो सकती है ? इसीलिए ग्रन्थकार ने प्रभु की पूजा के लिए नयवचनरूपी ऐसे सुन्दर पुष्प चुने हैं, जिन का भगवान् ने स्वयं संसार को उपदेश दिया ! अपने बतलाए हुए इन महकते हुए फलों से ही तो भगवान् प्रसन्न हो सकते हैं ! बाहर के ये प्राकृतिक पुष्प प्रभु को भला क्या प्रसन्न करेंगे ? जिनकी सुगन्ध क्षणिक है, क्षण भर में जो मुरझा जाने वाले हैं, और जिनकी पूजा में हिंसा की दुर्गन्ध आती है-ऐसे फूलों से क्या कभी सच्ची पूजा हो सकती है भगवान् की ? इसी अाशय से विनयविजय जी ने नय-वचन रूपी ऐसे अमर पुष्प सजाये हैं भगवान की पूजा के लिए, जो जीवन को महका देने वाले हैं, जीवन में से कलह, संघर्ष, विवाद की दुर्गन्ध को निकाल बाहर कर देने वाले हैं।
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