Book Title: Naykarnika
Author(s): Vinayvijay, Sureshchandra Shastri
Publisher: Sanmati Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 83
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir है, हमारी विचारधारा को पूर्णता की ओर ले जाता है, और कहता है कि अपनी-अपनी अपेक्षा से एक ही वस्तु में भिन्नभिन्न अभिप्रायों को अभिव्यक्त करने वाले सातों ही नय रह सकते हैं, पर अपनी-अपनी अपेक्षा या दृष्टि से । इसीलिए तो 'नयवाद' को 'अपेक्षावाद' भी कहते हैं । श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने अपने विशेषावश्यक - भाष्य में इसी प्रश्न को दूसरे ढंग से उठाया है। उन्होंने कहा है कि - "ये सब नय कभी एकत्रित नहीं हो सकते और यदि किसी तरह से एकत्रित हो भी जायँ, तो वे सम्यक नहीं बन सकते। कारण, वे अपनी-अपनी स्थिति में मिध्या होने से समुदित अवस्था में तो महामिध्या बन जाएँगे । दूसरी बात और । यदि वे समुदित ( एकत्रित ) हो भी जायँ तो, वस्तु का ज्ञान नहीं करा सकते; क्योंकि जब वे अपनी अलग-अलग स्थिति में वस्तु का सम्पूर्ण रूप से ज्ञान नहीं करा सकते थे, तो परस्पर मिले हुए नय परस्पर विरोधी होने से शत्रु की भांति बीच-बीच में विवाद करने के कारण वस्तु का ज्ञान कैसे करा सकेंगे ? वे तो वस्तु का ज्ञान कराने में और विघ्न डालने के लिए खड़े हो जाएँगे । अतः वे नय सम्यक्त्व-भाव को प्राप्त करके जिन-शासन का रूप कैसे ले सकते हैं ? - ६० ] For Private And Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95