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वर्णन करता है, उसे नय कहते हैं"अनन्तधर्मात्मके वस्तुन्ये कर्मोन्नयनं नयः ।"
-नयचक्रसार यदि वह विचार विवक्षित धर्म के अतिरिक्त अन्य धर्मों का निषेध या निराकरण करता है, तो वह नय नहीं, दुर्नय अथवा नयाभास कहलाता है । नयाभास का लक्षण है
"स्वाभिप्रेतादेशाद् इतरांशापलापी नयाभासः"
-अपने अभीष्ट अंश से दूसरे अंश का निषेध करने वाला विचार नयाभास कहलाता है।
आचार्य-मूर्धन्य श्रीसिद्धसेन दिवाकर ने भी कहा है कि "सारे नय अपने-अपने वक्तव्य में सच्चे हैं, और दूसरे के वक्तव्य का निराकरण करने में भूटे हैं । अनेकान्त सिद्धान्न का पारखी उन नयों में 'यह सच्चा' और 'यह झूठा'-ऐसा विभाग नहीं करता"णिययवयणिज्जसच्चा सव्वनया परवियालणे मोहा । ते उण ण दिट्ठसमो विभयह सच्चे व अलिए वा ।।
-सन्मति-तर्क, १,२८ प्रस्तुत पद्य में उपाध्याय श्री जी कह रहे हैं कि जैसे राजा लोग परस्पर में चाहे कितना ही कलह और संघर्ष करें; परन्तु चक्रवर्ती सम्राट् की आज्ञा का पालन करते समय वे सब राना परस्पर का वैर-विरोध भूल कर एकजूट हो जाते हैं; ५६ ]
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