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एवंभूत नय
एकपर्यायाभिधेयमपि वस्तु च मन्यते । कार्य स्वकीयं कुर्वाणमेवंभूतनयो ध्रुवम् ॥१७॥
अर्थ एक पर्याय (शब्द) के द्वारा कथित वस्तु [कथन के समय] निश्चित रूप में अपना कार्य करती हुई एवंभूत नय कहलाती है।
विवेचन विवेचनाशील व्यक्ति की बुद्धि जब चिन्तन के क्षेत्र में और आगे बढ़ती है,तो वह यहाँ तक पहुँच जाती है कि यदि व्युत्पत्तिभेद से अर्थ-भेद माना जा सकता है, तो ऐसा भी मानना चाहिए कि जब वह व्युत्पत्ति-सिद्ध अर्थ घटित हो रहा हो, तभी उस शब्द का वह अर्थ स्वीकार किया जाय, अन्यथा नहीं। तात्पर्य यह है कि समभिरूढ़नय तो व्युत्पत्ति के भेद से अर्थभेद तक ही सीमित रह जाता है; किन्तु समभिरूढ़ नय एक कदम और आगे बढ़कर कहता है कि जब वह व्युत्पत्ति सिद्ध अर्थ घटित हो रहा हो, उसी समय उस शब्द का वह अर्थ स्वीकार करना चाहिए । जिस शब्द का जो अर्थ है, उसके
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