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उत्तरोत्तर नयों की सूक्ष्मता और उनके उत्तर भेदों का कथन करते हैं
यथोत्तरं विशुद्धाः स्युर्नयाः सप्ताप्यमी तथा । एकैकः स्याच्छतं भेदास्ततः सप्तशताप्यमी ॥१९॥
. अर्थ ये सातों ही नय पूर्व-पूर्व की अपेक्षा उत्तरोत्तर विशुद्ध [सूक्ष्म ] होते चले गये हैं। और एक-एक नय के सौ भेद होने से सात नयों के कुल सात सौ भेद होते हैं।
विवेचन इस पा में ग्रन्थकार ने सातों नयों में क्रमशः शुद्धता (सूक्ष्मता) का दिग्दर्शन कराया है। उन्होंने बतलाया है कि इन सातों नयों में पूर्व-पूर्व की अपेक्षा उत्तर-उत्तर नय विशुद्ध होते चले गये हैं। विशुद्ध का अर्थ यहाँ पर सूक्ष्म लेना चाहिए । नैगम नय का विषय सब से स्थूल (अधिक ) है, क्योंकि गौण-प्रधान भाव से वह सामान्य
और विशेष दोनों का ग्रहण करता है। कभी सामान्य को प्रधानता देता है और विशेष को गौणरूप से ग्रहण करता है, तो कभी विशेष का प्राधान्य रूप से ग्रहण करता है और सामान्य को गौण रीति से स्वीकार करता है। संग्रहनय का
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