Book Title: Naykarnika
Author(s): Vinayvijay, Sureshchandra Shastri
Publisher: Sanmati Gyanpith

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Page 76
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विचार पर्यायार्थिक नय कहलाता है । द्रव्यास्तिक नय का अर्थ है-अभेदगामी दृष्टि और पर्यायास्तिक नय का अर्थ हैभेदगामी दृष्टि । वस्तु-निरूपण की सारी पद्धतियों का इन दो दृष्टियों में ही समावेश हो जाता है। क्योंकि विचार करने की वह पद्धति या तो सामान्य-बोधक होगी अथवा विशेष-बोधक । जैन-दर्शन के ज्योतिर्धर आचार्य सिद्धसेन की भाषा में इन दो दृष्टियों का नाम संग्रहप्रस्तार और विशेषप्रत्तार है। उन्होंने स्पष्ट कहा है कि "तीर्थकरों के प्रवचन में सामान्य और विशेषरूप विचारों की मूल प्रतिपादक संग्रहप्रस्तार और विशेषप्रस्तार ये दो दृष्टियाँ हैं । संग्रहप्रस्तार का नाम दव्यार्थिक नय और विशेषप्रस्तार का नाम पर्यायार्थिक नय है । शेष इन्हीं दो के भेद-प्रभेद हैं तित्थयरमूलसंगहविसेसपत्थारमूलवागरणी । दवट्टिो य पज्जवणो य सेसा वियप्पा सिं ॥ -सन्मति-तर्क, २.३ सारांश यह है कि चाहे हम वस्तु-निरूपण की किसी भी पद्धति को लें, वह या तो सामान्य-मूलक होगी अथवा विशेषमूलक होगी । दूसरे शब्दों में, वह पद्धति या तो अभेदगामी होगी अथवा भेदगामी । इन दो दृष्टियों को छोड़कर वह कहीं अलग नहीं जा सकती। अतः मूल में द्रव्य अर्थात् अभेद [५३ For Private And Personal Use Only

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