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व्यवहारनय
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विशेषात्मक मेवार्थ, व्यवहारश्च मन्यते । विशेषभिन्नं सामान्य मसत् खरविषाणवत् ॥८॥ अर्थ
व्यवहारनय वस्तु को विशेष-धर्मात्मक ही मानता है । विशेष से भिन्न सामान्य गधे के सींग की तरह असत् है । विवेचन
संग्रहनय के द्वारा सामान्य तत्त्व के आधार से विविध वस्तुओं को एकरूप में संगृहीत करने के बाद जब उनका विशेष रूप में बोध करना अभीष्ट होता है अथवा व्यवहार में उपयोग करने का प्रसंग उपस्थित होता है, तब उनका विशेष रूप से भेद करके पृथक्करण करना पड़ता है । केवल सामान्य के बोध अथवा कथन से जीवन का कोई भी व्यवहार नहीं चल सकता | व्यवहार के लिए सदा भेद-बुद्धि का प्रश्रय लेना पड़ता है । क्योंकि संग्रहनय तो सामान्यमात्र का ग्रहण कर लेता है; किन्तु वह सामान्य किंरूप है ? इसके लिए व्यवहार का सहारा लेना आवश्यक हो जाता है । दूसरे शब्दों में, संग्रहनय द्वारा गृहीत अर्थ का विधिपूर्वक
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