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अवहरण (विश्लेषण) करना ही व्यवहारनय है'अतो विधिपूर्वकमवहरणं व्यवहार :
-तत्त्वार्थ राजवार्तिक १, ३३, ६. उदाहरण के लिए संग्रहनय के द्वारा, 'जगत् सत् , इस वाक्य में सत् [सत्ता के रूप में सम्पूर्ण जगत् का ग्रहण कर लिया गया । परन्तु, उसका विभाजन करता हुआ व्यवहार प्रश्न करता है कि वह सत् जीवरूप है अथवा अजीवरूप ? केवल जीवरूप कहने से भी काम नहीं चल सकता । वह जीव नारक है, देव है, मनुष्य है अथवा तिथंच है ? इस प्रकार व्यवहारनय वहाँ तक भेद करता चला जाता है, जहाँ आगे भेद करने की सम्भावना नहीं रहती है। व्यवहारनय का मुख्य प्रयोजन व्यवहार की सिद्धि है।
उपर्युक्त पद्य में प्रस्थकार यही बतलाना चाहते हैं कि व्यवहारनय विशेष धर्म के रूप में ही वस्तु को ग्रहण करता है, सामान्य रूप में नहीं। और, विशेष से अलग सामान्य गधे के सींग की तरह कहीं उपलब्ध भी तो नहीं होता।
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