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मनुष्यों के लिए उन गणनातीत विचार-सरणियों को हृदयंगम करना नितान्त असम्भव है, अतः जैनाचार्यों ने गहरे चिन्तन-मनन के बाद उस विराट विचार-समूह का सात वर्गों में समावेश करके गागर में सागर भरने की उक्ति को चरितार्थ किया है। इन सात विचार-वर्गों का नाम ही सात नय हैं, जिनके नाम हैं-नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत । विचार-मीमांसा का यह एक ऐसा विशिष्ट एवं सर्वाङ्ग-पूर्ण वर्गीकरण है कि संसार का कोई भी वैयक्तिक, सामाजिक, धार्मिक, दार्शनिक व्यावहारिक तथा पारमार्थिक विचार इन सात नयों की सीमा से बाहर नहीं रह पाता।
जैन-जगती के ज्योतिर्धर विद्वान् उपाध्याय श्रीविनय. विजय जी ने अपनी इस 'नयकर्णिका' नामक लघु कृति में जैन-संस्कृति के अन्तिम तीर्थंकर श्रमण भगवान् महावीर की स्तुति के रूप में उपर्युक्त सात नयों के स्वरूप को अत्यन्त सरल, संक्षिप्त और कलात्मक पद्धति से समझाने का महार्घ प्रयास किया है। संक्षेप में नयों का परिज्ञान करने के लिए उपाध्यायश्री जी की यह अनुपम कृति नितान्त उपयोगी है-यह अधिकार की भाषा में कहा जा सकता है । अत्यन्त संक्षिप्त और भगवान् की स्तुति-रूप होने से यह कृति कंठाग्र होने में अत्यन्त सुगम है- यह तथ्य भी सूर्य के प्रकाश की तरह स्पष्ट है।
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