Book Title: Naykarnika
Author(s): Vinayvijay, Sureshchandra Shastri
Publisher: Sanmati Gyanpith

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Page 39
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जाता है । अपर संग्रह द्रव्यत्वादि अपर सामान्यों का ग्रहण करता है । सत्ता सामान्य-जो कि परसामान्य या महासामान्य है-उसके सामान्यरूप अवान्तर भेदों का ग्रहण करना अपर संग्रह का कार्य है । इस तरह सामान्य के भी दो प्रकार हुए-पर और अपर । पर सामान्य सत्ता सामान्य को कहते हैं, जो पदार्थ में रहता है । अपर सामान्य पर सामान्य के द्रव्य, गुण आदि भेदों में रहता है। द्रव्य में रहने वाली सत्ता पर सामान्य है और द्रव्य में रहने वाला द्रव्यत्व अपर सामान्य है। इसी तरह गुण में रहने वाली सत्ता पर सामान्य है और गुणत्व अपर सामान्य है । पर संग्रह और अपर संग्रह दोनों मिलकर सामान्य के सब भेदों का ग्रहण करते हैं; क्योंकि संग्रह नय सामान्यग्राही दृष्टि का नाम है । ___ "सामान्य सत्ता मात्रग्राही सत्तापरामर्शरूपसंग्रहः; स परापरभेदाद् द्विविधः , तत्र शुद्धद्रव्यसन्मात्रग्राहकः चेतना लक्षणो जीव इत्यपरसंग्रहः। -नयचक्रसार इस प्रकार जो-जो विचार सामान्य तत्त्व के आधार से विविध वस्तुओं का एकीकरण करके प्रवृत्त होते हैं, वे सब संग्रह नय की कोटि में आ जाते हैं ! सामान्य जितना छोटा होगा, संग्रह नय भी उतना ही छोटा बन जायगा और सामान्य जितना बड़ा होगा, संग्रह नय का क्षेत्र भी उतना For Private And Personal Use Only

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