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( १४ )
मंच पर अपनी छाती तान कर खड़े हो जाते हैं और संसार अशान्ति का अखाड़ा बन जाता है ।
यदि ये सब विचारक एक मंच पर बैठकर सहिष्णुता और धैर्य के साथ एक-दूसरे की बात सुन लें, एक-दूसरे के दृष्टिकोण को समझ लें और अपनी ही दृष्टि को दूसरों पर बलात्कारपूर्वक थोपने का यत्न न करें, तो फिर इनमें परस्पर मेल न हो जाय, समझौते और समन्वय का द्वार न खुल जाय । सर्वोदय की पगडंडी साफ न हो जाय ! और यही तो सिखाता है जैन दर्शन का नयवाद ।' जैसे प्रकाश के आते ही अन्धकार अदृश्य हो जाता है ; उसी प्रकार 'नयवाद' का आलोक मन-मन्दिर में आते ही कलह, द्वेष, कलुषित विचार, पारस्परिक तनातनी, संकीर्णता एवं संघर्ष बात की बात में शान्त हो जाते हैं और शान्ति का एक मधुर एवं मैत्री - पूर्ण वातावरण बनता चला जाता है । पारस्परिक विरोध एवं संघर्ष के जहर को निकाल कर विरोध, शान्ति तथा समन्वय के इस अमृत वर्षण में ही 'नयवाद' की उपयोगिता निहित है ।
'नय - कर्णिका' और प्रस्तुत प्रयास
संसार की जितनी भी विचार-सरणियाँ और वचन - प्रकार हैं, वे सब नय की कोटि में आ जाते हैं - यह जैनदर्शन की घोषणा है । इस दृष्टि से नयों की कोई गिनती नहीं है, यानी नय अनन्त हैं, गणनातीत हैं । अल्प-मति
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