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सीमा से परे की बात है । स्थूल रूप से नय के कितने भेद हो सकते हैं-जैन-दर्शन के महान् आचार्यों ने यह बतलाने का प्रयत्न किया है।
वैसे तो नय-भेदों की संख्या के विषय में कोई एक निश्चित परम्परा नहीं है । जैन-दर्शन के इतिहास पर दृष्टिपात करने पर इस विषय में हमें प्राचार्यों की तीन परम्पराएँ उपलब्ध होती हैं। एक परम्परा तो सीधे रूप में नय के सात भेद मानकर चलती है। ये सात भेद हैं-नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत । जैन-आगम और दिगम्बर ग्रन्थ इस परम्परा के अनुयायी हैं। दूसरी परम्परा नय के छह भेद स्वीकार करती है। उसकी दृष्टि में नैगम कोई स्वतन्त्र नय नहीं है। इस परम्परा के संस्थापक हैं जैनजगत् के ज्योतिर्धर विद्वान् आचार्य सिद्धसेन दिवाकर । तीसरी परम्परा तत्त्वार्थ-सूत्र और उसके भाष्य की है। इस परम्परा के अनुसार मूल में नय के पाँच भेद हैं -नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र और शब्द । इनमें से प्रथम नैगम नय के देशपरिक्षेपी और सर्वपरिक्षेपी-ये दो भेद हैं तथा अन्तिम शब्द नय के साम्प्रत, समभिरूढ़ और एवंभूत ये तीन भेद हैं।
इन तीन परम्पराओं में से सात भेदों वाली परम्परा
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