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( २५) से पुकारा करते थे। शिक्षा की अपेक्षा आप बचपन में खेल कूद पर विशेष रुचि रखते थे और इस प्रक्रिया में बढ़ते बढ़ते बापने वे खेल खेलने भी शुरू कर दिए जिनसे पांडवों और राजा नल को जंगल २ में भटकना पड़ा था। पर आखिर "अंधेरा सूर्य को कब तक रोके रख सकता है" आपने उस मायावी यूव क्रीडाको दूरसे ही दुत्कार कर साथही साथ इस असार संसार की भी खराबी समझ ली और तदनुसार शान्तमूर्ति आचार्य प्रवर गुरुवर्य श्रीमान् वृद्धिचन्दजी महाराज के कर कमलों से आप दीक्षित हुए । दीक्षाऽनन्तर आपका नाम बदल कर मुनिधर्मविजय" रक्खा गया जो कालान्तर में "यथा नाम तथा गुण" के अनुसार सत्य में परिणत हुआ। थोड़े ही समय में आपने उज्वल गुरु भक्ति से जड़ता का परदा नाश कर दिया और शनैः २ ज्ञानाभ्यास की ओर कदम बढ़ाना शुरू किया। जमाने की जरूरतों को समझ कर आपने पहिले से ही कई संकल्प दृढ़ कर लिए और प्राचीन रूठिवाद की खराबियों को समम लिया । गुरुजी के स्वर्गवासाऽनन्तर आप अपने विचारों को क्रियात्मक रूप देने के लिए अनेक कष्ट उठा बनारस आगए ।
वहाँ जैनधर्म के विद्वेषी धुरन्धर शास्त्रियों और पण्डितों को फिर से जैन-धर्म के प्रशंसक बनाए और वहाँ (बनारस) “यशो विजय जैन पाठशाला" स्थापित कर अनेक विद्वान् पैदा किए। तथा "श्री यशोविजय ग्रंथमाला, द्वारा अनेक प्राचीन ग्रन्थों का प्रकाशन कर लुप्त प्राय प्राचीन साहित्य का पुनरुद्धार शुरु किया। कलकत्ता यूनिवर्सिटी में जैन न्याय और व्याकरण के तीर्थ परिक्षा तक के ग्रन्थ दाखिल करवाए । लंका में अपने
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