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अध्याय
सराधना
उत्तर-विपरीत क्रमका आश्रय करने में यह कारण है-इस शास्त्रमें लिद और साधक एमे दो प्रकारक जीद कहे हैं. अहत और सिद्ध परमेष्ठि आराधनाका फल पाचुके हैं अतः वे सिद् जीव हैं, आचार्य, उपाध्याय व साधु परमेष्टि ये तीनों भी साधक माने गये हैं. इन साधकोंक ऊपर अनुग्रह करने के लिए इस शास्त्रकी रचना की है. अत: सिदोंको मंगलरूपसे स्वीकार कर उनको आचार्य ने प्रथम नमस्कार किया है, यह योग्यही दुआ. आचायदि तीन परमेष्टिनाको चंदन नहीं किया है क्योंकि वे आराधनाके अधिकारी है. उन्होंने आराधना फलको प्राप्ति नहीं की है. ऐसा किसी विद्वानोंका भाप्य व परिहार है, परंतु य दोनों भी असंगत सरोग्य मायम पदंत हैं. प्रधमतः यहां भापकी अयुक्तता आचार्य दिखाते है
शास्त्रादिको नमस्कार क्यों करते हैं? यदि निधि रीती से शासकी सिद्धि हो। इस हेतुसे नमस्कार BE करते हैं ऐसा कहोगे तो हम आपसे ऐसा पूछते हैं कि वह कैसा विलपरिहार करता है ? विन श्रोताको अथवा
वक्ताको होना है क्या ? विन्न दोसको भी होता है तथा अन्तसय कर्म उपका कारण है. 'बिनकरणमन्तरायस्य । ऐसा आचार्य उमास्वामीका वचन भी है. इस अन्तराय कर्मके दान, लाभ, भोग, उपभोग, व घीर्य इन पांच कार्य। में विघ्नलागा होनेसे मान कर है, ना बकमें दानांतराय फर्म उपस्थित होता है उससमय वह उसको विन करता है, अर्थात् वक्ता उससमय शास्त्रत्चना करने में असमर्थ होता है. दानान्तराच कर्म आहारदान, सतिकादान
और शाखदान ऐसे तीन दान में विन्न करता है, अतः दानान्तसय कर्म ज्ञानलाभका पात करता है. श्रोताको लाभांतराय कर्म हो तो वह शाखलाभ-शाख प्रब गलाभ होने नहीं देता, नमस्कार करनेपर भी यदि अन्तराप कम उदयमें आया हो तो शाख रचना तथा अनगलाभ क्यों नहीं होते? इस प्रश्नका उत्सर यह है--शाल्यं कुर उत्पन्न होनेमें शालिबीज, जल, जमीन, सूर्य के किरण इतने कारण होते हैं. वह सर्व समग्री पूर्ण रहनेपर भी, यदि साल तमालादि घृक्ष मौजद हो तो शल्यंकुर उत्पका नहीं होना. प्रकृत प्रकरणमें भी ऐसा ही समझना चाहिए. अयात् वक्ता और श्रोताओने नमस्कार किया हो तो भी अन्तराय कर्म होनेसे प्रस्तुन कार्य करने में वे समर्थ नहीं होते हैं.
यहाँपर यदि आप ऐसा कहोग-" यदि अन्तराय अशुभ कर्मप्रकृति है, परंतु शुभ परिणाम उत्पन्न होनेसे उसका विन्न करनेका उत्कट म नट हो जाने से वह विनरूपी स्वकार्य करने में असमर्थ हो जाता है तो
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