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बुलाराधना
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अवहेलना न करना यह सब तपोविनय है. इसके विना तपश्चरणमें श्रेष्ठता नहीं आती है. अतः यह तप आराधनाका परिकर है. तथा यह तप आराधना चारित्राराधनाका परिकर है. कपटका त्याग करके जो तप किया जाता है वही तप आराधना है.
इस प्रकार चार प्रकारकी, दोन प्रकारकी एक प्रकारकी आराधना कही हैं. ये आराधनाके भेद अथवा समग्र आराधना कारण के बिना कहना योग्य नहीं है, क्योंकि पुरुष बुद्धिसे विचार कर कार्य करता हैं तथा उसका प्रयोजन किसी कार्य करनेसे सिद्ध होता दीखेगा तो वह उसको करनेके लिये प्रयत्न करता हैं. अथवा प्रयोजन सिद्धी के लिये उसके साधनोंका संग्रह प्रयत्नसे करता है, प्रयोजन सिद्ध होनेकी संभावना नहीं दीखनेपर वह कार्य करनेसे हट जाता है. अतः यह आराधना पुरुषको श्रवण कार्य में कैसी उद्युक्त करेंगी ? ऐसे प्रश्नका उत्तर आचार्य देते है
किसी प्रकारकी बाधा जिसमें नहीं है ऐसा मोक्षका सुख प्राप्त कर लेना यह आत्माका दृष्ट प्रयोजन है. उसके सिद्धिका उपाय यह आराधना ही हैं, अतः इस आराधनाका विवेचन निर्वाण सुखेच्छु भव्योंका अवश्य उपयोगी दोगा. ऐसा उद्देश मनमें धारण कर आचार्य आगेका प्रबंध कहते हैं, अथवा बार, दोन, एक ऐसे भेद जिसके ग्रंथकार ने बताये है ऐसे इस आराधनामें मोक्षसुरेखेच्छु भव्योंकों प्रवृत्ति करना योग्य है. इसके निरूपणके लिये यह उत्तर प्रबंध हैं, इसबास्ते आत्महितका अन्वेषण- शोध करनेवाले भव्यात्माका मुक्तिसुखके लिये इसमें प्रवृत्ति करना अवश्य कार्य है इसलिये ग्रंथकारने " कादच्या खु तदत्थं आदहिंदगवेसिणा चेट्ठा " ऐसा उपसंहार किया है. ज्ञान, दर्शन और चारित्र इन तीनोंमें कौन मुख्य है ऐसा प्रश्न किया जाने पर आचार्य चारित्र की मुख्यता दिखानेके लिये उत्तर गाथा कहते है ऐसा कितनेक विद्वान कहते हैं परंतु यह उनका कहना अयोग्य हैं.
अन्येऽत्र व्याचक्षते ज्ञानदर्शनचारित्रेषु किं प्रधानमिति चीधे चारित्रप्राधान्यख्यापनायोत्तर सूत्रमिति तदयुक्तम् । णाणस्स दंसणरस य सारो चरणं हवे जहाखादं ॥
चरणस्स तस्स सारो णिव्वाणमणुत्तरं भणियं ॥ ११ ॥
आश्वासः
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