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मलाराधना
आवासः
विशेष—यहाँ कोइ आचार्य उपयुक्त गाथामें, 'अनंतसंसारिओ होदि ऐसा शब्द आया है उसका खुलासा करनेके लिये यह गाथा है ऐसा कहते हैं, अनंतसंख्याके अनंत विकल्प होते हैं अत: उपर्युक्त अनंत संसारका प्रमाण दिखाने के लिये यह गाथा है ऐसा कोई आचार्योका कथन है परन्तु यह अयुक्त है. यदि इतना ही अभिप्राय होता तो ' उक्कस्में अंतर होदि' इतना ही वाक्य उपयुक्त है ऐसा समझकर गाथाके तीन चरण व्यर्थ है ऐसा मानना पड़ेगा. अतः पूर्व माथाका स्पष्टीकरण और सत्यताका समर्थन करने के लिये यह गाथा है अर्थात् संक्लेश परिणाम रखनेका फल दिखानेका उद्देश इस गाथामें ग्रंथकाने लिखा है ऐसा समझना चाहिये.
गमन, भाषण, आहार, वस्तु रखना, उठा लेना, मलमूत्रादिक क्षेपण करना ऐसे कार्याम श्रुत्तज्ञानमेंआगममें जैसी प्रवृत्ति करनेका वर्णन किया है वैसीहि प्रवृत्ति रखना उसको समिति कहते है. अर्थात् प्राणि हिंसा न हो, उनका संरक्षण हो इस तरहसे प्रवृत्ति करना वह समिति है.
___मनवचनकायकी अशुभ प्रत्तीसे आत्माको दूर रखना अर्थात् अशुभ प्रवृत्तीको छोड देना यह गुप्ति है, जीवादितत्वापर यथार्थ श्रद्धान काना सम्यग्दर्शन है, जिससे मिथ्यात्वदोष हट गया है ऐसे जीवको वस्तुके स्वरूपका जो ज्ञान होता है वह सम्यग्जान है, उसके यहां मति, श्रुत, अवधि, मनः पर्यय ऐसे चार भेद मानने चाहिये. ये शानभेद भायोपशामिक है. शायिकहानमें आसाइना नहीं रहती है. स्पोंकि, मोहजन्य संहेशपरिणाम और मोहकर्म केवलज्ञान उत्पन्न होनेके पूर्व ही नष्ट होते हैं, 'मोक्षयाज्झानदर्शनावरणान्तरायषयाच केवलं' ऐसा सूत्रकार उमास्वामीका भी क्चन है, इसवास्ते यहां केवलशानका ग्रहण नहीं किया है. वीतराग सम्यक्त्वका भी यहाँ प्रहण नहीं किया है क्योंकि वह भी मोहका नाश हुये बिना होता नहीं.
ईर्यासमितीके अतिचार-सूर्यके मैदप्रकाशमें ममन करना, जहां पांव रखना हो यह जगह नेत्रसे अच्छी तरहसे न देखना, इतर कार्य में मन लगना इत्यादि.
माषासमितीके अतिचार-यह भाषण बोलना योग्य है अथवा नहीं इसका विचार न कर बोलना. वस्तुका स्वरूपज्ञान न होनेपर भी बोलना. ग्रंथांतरमें भी 'अपुरो दुण भासेज्ज भासमाणस्स अंतरे' कोई मनुष्य पोल रहा है और अपनेको प्रकरण, विपय मालूम नहीं है तो बीचमें बोलना अयोग्य है. जिसने धर्मका स्वरूप सुना
+Auradabita.taruM24taas.