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मूलारापना
आश्वास:
नहीं अथवा धर्मस्वरूपका जिसको पूर्णतया ज्ञान नहीं है ऐसे मुनिको अपुष्ट कहते हैं. भाषासमितिका क्रम जो जानता नहीं यह मौन धारण करे ऐसा यहां अभिप्राय समझना. इस तरह भाषासमितिके अतिचार है.
एपणासमितीके अतिचार-उद्गमादि दोषोंसे सहित भोजन लेना, मनसे, वचनसे ऐसे आहारको सम्मति देना, नामी प्रपा पागा, रेसे आहारडी प्रशंसा करनेवालोंके साथ रहना, प्रशंसादि कार्यमें दुसरोंकों प्रवृत्त करना.
आदाननिक्षेपणसमितीके अतिचार-जो चीज लेनी है अथवा रखनी है रह लेते समय अथवा रखते समय इसमें जीव है या नहीं इसका खयाल ध्यान नहीं रखना, तथा अच्छी तरहसे जमीन व बस्तु स्वच्छ न करना.
प्रतिष्ठापन समितीके अतिचार-शरीर व जमीन पिच्छिकासे न पोछना, मलमूत्रादिक जहां क्षेपण करना है वह स्थान न देखना.
मनकी एकाग्रता बिना शरीरकी चेष्टाये बंद करना काय गुप्तिका अतिचार है. जहां लोक भ्रमण करते हैं ऐसे स्थानमें एक पाव उपर कर खडे रहना, एक हाथ ऊपर कर खड़े रहना. मनमें अशुभ संकल्प करते हुए अनिश्चल रहना, आप्ताभास-हरिहरादिक की प्रतिमाके सामने मानो उसकी आराधना ही कर रहे हैं इस दंगसे खडे रहना या बैठना. सचित्त जमीनपर जहां कि बीज अंकुरादिक पड़े है ऐसे स्थलपर रोपसे, वा दपस निश्चल बैठना अथवा खडे रहना. ये कायगुप्लीके अतीचार है. कायोत्सर्गको भी गुप्ति कहते हैं अतः शरीरममताका त्याग न करना, किंवा कायोत्सर्गके दोपाको न त्यागना ये भी कायगुप्तीके अविचार है. रागादिविकार सहित स्वाध्यायमें प्रवृत्त होना, मनोगुसिके अतिचार हैं,
. शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, अन्य दृष्टि पशंसा, संस्तव ये पांच सम्यग्दर्शनके अतिचार हैं. इसका खुलासा आगे आचार्य करेंगे.
. द्रव्य शुद्धि, काल शुद्धि, भाव शुद्धि, क्षेत्र शुद्धि इन शुद्धिओंके बिना शास्त्रका पठन करना यह श्रुतातिचार है. अक्षर, शब्द, वाक्य, चरण इत्यादिकोंको कम करना, चढाना, पीछेका संदर्भ आगे लाना, आगेका पीछे करना, विपरीत अर्थका निरूपण करना, ग्रंथ व अर्थमें विपरीतता करना ये सब ज्ञानातिचार हैं. संदेह, विपर्यय, अनध्यवसाय ये भी ज्ञानके अतिचार हैं. उपर्युक्त अतिचारोंसे समितिगुप्त्यादिक रहित होनेसे पारित्रादिकोंमें निर्मलता आती है.