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लाराधना
नावात
कारण हो तो व्याघ्रादि हिंस्र प्राणीही मरणांचर स्वगादि सुखको प्राप्त होंगे. अतः हिंसा स्त्रगदायिनी है यह मानना अयोग्य है.
वर्ग व मोक्षकी माप्तिके उपाय व वर्गादिक उपेय इन दोनोंका प्रत्यक्ष दर्शन नहीं है. अनुमानसे मी इनका स्वरूप नहीं जाना जाता है क्योंकि वह भी प्रत्यक्षके विना उत्पन्न होता नहीं. आगमसे उपाय और उपेयका ज्ञान होता है अतः आगमका आश्रय लेना ही योग्य है. वह आगम जिसने रागद्वेषका नाश किया है ऐसे सर्वज्ञ जिनेश्वरने रचा है. अतः वह ही स्वादिके उपाय और उपेय सुखादिकका प्रतिपादन करता है.
कपिलादिक अन्यमत प्रणेताऋषि असर्वज्ञ थे अतः उनका आगम अदृष्ट पदार्थोंका ज्ञान करानेमें उपाय हो नहीं सकता. कपिलादिकके वचन प्रत्यक्ष और अनुमादिक प्रमाणांसे विरुद्ध हैं अतः वे रथ्यापुरुषके समान अपमाण है.
शब्द नित्य है यह कहना भी योग्य नहीं है यदि वे नित्य हैं तो सर्व शब्द नित्य होनेसे पुरुषोंके रागद्वेषादि दोपोंसे वे अलिप्त होनसे प्रमाण मानने पटेंगें. जिनागमसे हिंसा दुःखोत्पत्तिके लिये कारण है ऐसा अनुभव आता है अतः हिंसाको सुखका कारण समझना विपरीत मिथ्यात्व है. इस विपरीत मिथ्यात्वका सत्यज्ञानसे मुनिराज पराभव करते हैं. मिथ्यात्व, असंयम, कषाय ऐसे शत्रुओंको जीतकर घे अलात्कारसे आराधनापताका हरण करते है.
चिरमभाषितरत्नत्रयाणामतर्मुद्वर्तकालभायनानां सिद्धिरिष्यते तकिं चिरभावनयेत्यस्योसरमाचष्टे
पुब्बमभाविदजोग्गो आराधेज मरणे जदि वि कोई ॥ खण्णुगदिठंतो सो तं खु पमाणं ण सव्वत्थ ॥ २४ ॥ यभावितयोगोऽपि कोऽप्याराधयते मृति ॥
तस्पमाणं न सर्वत्र स्थाणुमूलनिधानषत् ॥ २७॥ पुवं पूर्व मरणकालात् । अभाविदजोग्गो अभावितपरिकरः । आराधेज आराधयेत् । किं मरणं रत्नत्रयानुगतभवपर्यायालयं । जदि वि यद्यपि | कोई कश्चित् । खण्णुगदिट्टतो स्थाणुदृष्टान्तः । सो सः । तं खु तदेव । अकृत