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मूलाराधना
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परिकरस्य कस्यचित्नत्रय समापनं । सव्वत्थ सर्वत्र । ण पमाणं न प्रमाणं । अर्थाख्यानमंत्र वाच्यम् । एवं पीठिका समाप्ता ॥
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मूलारा – आराहेज्ज मरणं रत्नत्रयानुगतं भवपर्याथालयं कुर्यादित्यर्थः । स्वणुगदितो सो स्थाणुदृशन्तः स: । तं खु । तदेव अकृतपरिकर्मणः कस्यचिन्मरणे रत्नत्रयपरिणमनं । सव्वस्थ सर्वत्र सर्वेषु न प्रमाणं न गमकं । यो यो जीवः स स स कवित् प्रसिद्वो जीय इति व्याप्तेरभावात् । पूर्वममातियो ययाराधयन्मृतौ कश्चित् ॥ स्थाणौ निधनलाभो निदर्शनं नैव सर्वत्र ||
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पीठमासनमिष समस्तथार्थसंग्रहस्याधारभूतत्वात् । लोकः
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त्यक्त्वा संग सुधीः साम्यसमभ्यासवशाज्जयं । समाधि मरणे लब्ध्वा इत्यल्पयति वा भषम् ॥
इति मूलाराधनादर्पणे पीठिकाप्रतिष्ठा ।
जिन्होंने बहुत कालपर्यंत रत्नत्रयाराधन नहीं किया है अर्थात् अन्तर्मुहूर्त कालपर्यन्त ही आराधन किया है उनको भी मोक्षलाभ होगया है, अतः चिरकालरत्नत्रय भावनाकी आवश्यकता नहीं है ऐसे प्रश्नका उत्तर आचार्य कहते हैं
अर्थ — मरणकाल के पूर्व अर्थात दीक्षा, शिक्षा वगैरे समय में रत्नत्रय के साधनभूत कारणों का किसी जीवने आराधन नहीं किया हो परंतु मरणसमय में उसने रत्नत्रयकी आराधना की हो तो भी यह स्थाणुदृष्टांत के समान हो गया. रत्नत्रय के साधन बिना यदि किसी विरले मुनिको मरण समय में रत्नत्रयाराधना होनेसे यह सार्वत्रिक नियम नहीं हो सकता. जैसे किसी विरले अंधको स्तंभसे टकरानेसे नेत्रलाभ हुवा और स्तंभ गिरनेपर उसके नीचे रक्खा हुबा निधि उसको दीख पडा परंतु तमाम अंध जनाको इसी उपायसे निधिलाभ होगा यह समझना नितांत
आश्वासः
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