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आश्वास:
मूलाराधना
हिंदी अर्थ-आगमका सार ऐसीरत्नत्रयपरिणति मरण कालमें यदि होती हुई देखी जाती है तो मरणकालसे भिन्न कालमें अर्थात् दीक्षा ग्रहण, शिक्षा ग्रहण, गण पोषण, आत्म संस्कार इत्यादि कालमें चारित्र और तपश्चरणमें प्रयत्न करनकी क्या आवश्यकता है ? अर्थात् अनशनादिक तप, सामायिकादिक चारित्र और सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन इनमें प्रति करना व्यर्थ है. दीक्षा, शिक्षा वगैरे कालमें रत्नत्रयकी आराधना करने पर भी मरणकालमें यदि रत्नत्रयकी आराधना न हो तो सिद्धिप्राप्ति नहीं होती है, और यदि अन्यकालमें रत्नत्रयभावना नहीं की और मरणकालमें रत्नत्रयाराधनासे मोक्ष प्राप्त हो गया तो मरणकालीन रत्नत्रयही मोक्षका कारण है ऐसा सिद्ध होना है. अतः शेषकालमें रत्नत्रयाराधना करना निष्पलही है, प्रयास मात्रही है,
इस शंकाका उत्तर-मरणसमयमें रत्नत्रयकी विराधना करनेसे विराधकको दीर्घ कालतक. संसारमें भ्रमण करना पड़ता है. परंतु दीक्षादि कालमें विराधना होगई हो तो भी मरण कालमें रत्नत्रयकी प्राप्ति हो जानेसे संसारका नाश हो जाता है अतः मरणकालमें रत्नत्रयमें परिणति करनी चाहिये ऐसा हमारा अभिप्राय है. इतर कालमें रत्नत्रयाराधना की तो वह विफल नहीं होती है, उससे कर्मका संवर और निर्जरा होती है. तथा पाति कर्मका क्षय करनेमें वह निमित्त होगी ऐसा हम समझते है. “ सम्यग्दृष्टिश्रावकविरतानंतषियोजकदर्शनमोह क्षपकोपातमोहक्षपकक्षीणमोहजिनाः क्रमशोऽसंख्येयगुणनिर्जराः " सम्यग्दृष्टि, श्रावक, चिरत इत्यादिक व्यक्तियोंको सम्यग्दर्शनादि गुणोसें उत्तरोत्तर असंख्यात गुण रूपसे निर्जरा होती है ऐसा पत्रकार उमाखाम्याचार्य कहते हैं, अतः दीक्षा शिक्षादि कालमें रत्नत्रयाराधना व्यर्थ नहीं है, क्षायिक सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र यह सब साध्य इतर कालीनभावनासे भी प्राप्त होते हैं अतः व्यर्थ नहीं है. अतः तुम्हारे प्रश्नके अनुसार भी शंकाका परिहार करना शक्य है. यही बात आगेके गाथामें दिखावे है
- क्षायिकं सम्परवं ज्ञान चारित्रं च यत्साध्य तदखिलमवाप्यत एष इतरकालसयापि भावमया । तदेष घोर चोद्यते इति देतसि कृत्या मूरिशोद्यानुसारेणापि परिहत्तुं शक्यते इत्याचष्टे ॥
आराहणाए कज्वे परिचम्म सबदा वि कायव्यं ।। परियम्मभाविदस्स हु सुहसम्झाराहणा होइ ॥ १९ ॥