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Padal
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मलाराधना
आश्वासः
यज्ञान तबनिराकरणफलं यथा चक्षुनिमित्यन्वयदृष्टान्त प्रकृते दर्शयन्नाह
मूलारा-चक्खुस्स सणस्स-चक्षुर्ज्ञानस्य सारो फलं। सप्पादिदोसपरिहरण । सर्पोदीनां भुजगकीटकादीनां दोषो दुःखहेतुः स्पर्शनभक्षणादिक्रिया तस्य परिषर्जनं । चक्खू चक्षुर्वानं, णिरत्यं निष्फलं । बिले गर्तादावुपघातहेतौ ।।
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कहते हैं
. दुःखोंके कारणाको दूर करना यह ज्ञानका फल है इसका अन्वय सिद्ध करनेके लिये आचार्य दृष्टांत
हिंदी अर्थ नेत्र और उससे होनेवाला जो भान उसका फल सर्पदंश, कंटकव्यथा इत्यादि दुःखोंका परिहार करना यह है. परंतु जो बिलादिक देखकर भी उसमें गिरता है उसका नेत्रज्ञान व्यर्थ है,
विशेषार्थ--यहां चक्षु शब्दका अर्थ द्रव्यचक्षु ऐसा है. इस चभूके निवृत्ति और उपकरण ऐसे दो भेद हैं.. उत्सधागुलके असंख्येयभागममाण नेत्रंद्रियावरणक्षयोपशमविशिष्ट ऐसे आत्ममदशॉकी जो नेत्राकार रचना होती है बह कक्षुकी अम्यंतर निचि समझना चाहिये. नेत्राकार आत्मप्रदेशोंके उपर जो पुगलकी रचना होती है उसको बाघ निर्वचि कहते हैं. निचिरूप भक्षुके संरक्षणके लिये जो कृष्ण शुक्ल मंडल तथा पापनी मगरे रचना है यह उपकरण है. अर्थात् उपर्युक्त निर्वृत्ति और उपकरणरूप नेत्रको द्रव्यचक्षु कहते हैं. इस चक्षुसे उत्पन होनेवाले | हानको यहाँदर्शन कहते हैं. दुःखनिराकरण करना यह ज्ञानका फल है. जैसे सर्पकंटक इत्यादि दुखकारणोंका चक्षुसे
उत्पन्न हुवा शान, सर्पादिदंश, कंटकादिव्यथाका परिहार करता है. अर्थात् ऐसे दोषोंसे मनुष्यको अलग रखना यह नेत्रहनका फल है, उसी तरह दुःखोत्पादक संसारकारणोंका परिहार करना यह सम्यग्ज्ञानका फल है,
यहां दसरी व्याख्या एसी है." छान और दर्शनसे भी आत्माका अधिक हित करनेवाला विशिष्टफलदायी चारित्र है "ऐसा गत गांधामें कहा है. परंतु यहां एसी शंका उत्पन्न होती है
"ज्ञान इष्ट मार्ग कोनसा और अनिष्ट मार्ग कोनसा है यह दिखाता है. अतः वह उपकार करता है ऐसा कहना योग्य है." यह कहना योग्य नहीं है. ज्ञानमात्रसे इष्ट सिद्धि नहीं होती. कारण प्रचत्तिहीन शन नहीं समान हैं. जैसे नेत्रसे शान होकर भी वह यदि कुचेमें गिरते हुये पुरुषको नहीं बचाता है तो वह व्यर्थ है.