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LAAMERA
लाराधना
आधासः
कस्मात् ।
मूलारा-चरित्तसारो चरित्रस्य जीवदवस्थाभाविनिरतिचाररत्नत्रयप्रयतनस्य सारः फलं | आराहणा मरणे निरतिचाररत्नत्रयपरिणतिः । पवयणम्मि प्रकण दृष्ट्र प्रमाणाविरोधेन उच्यते प्रतिपाद्यन्ते जीवादयो भाषा अनेन भाम्मच प्रजननं जनमासम्म म
आग्रहमा आरामनंट सादर क रण्यात
हिंदी अर्थ-प्रत्यक्ष व परोक्ष प्रमाणोंके अनुसार जीवादिक पथार्थोंका जिसने अथवा जिसमें विवेचन किया है ऐसे जिनामममें ज्ञान, दर्शन और पापोंका परिहार रूपी चारित्र इन तीनोंमें जो पूर्ण उद्यमशील हुवा है उसको आराधना रूप फल प्राप्त होता है, अतः संपूर्ण जिनागमनका आराधनाही सार है अर्थात् सर्वोत्कृष्ट फल है.
यहां दूसरी व्याख्या एसी है-उपरकी गाथामें जो फल कहा है वह चारित्रमात्रसे मिलता है या विशिष्ट चारित्रसे उत्तर विशिष्ट चारित्रसे मिलता है
जम्हा परित्तसारो इस सूत्रके उपर जोशीपक आपने लिखा है उसका अभिप्राय गाथाके अभिप्रायसे मिलता जुलता है या नहीं इसमें हम श्रीनाओको ही प्रमाण समझन है. क्योंकि आगममें आराधना मोत्कृष्ट फलरूप है ऐसा कहा है.
16MARATH.44AARNATAMATALAtUTAM
सुचिरमवि णिरदिचारं बिङ्गित्ता णाणदसणचरिते ॥
मरणे विराधयित्ता अणंतसंसारिओ दिछो ॥ १५ ।। विजयोदया-सुचिर अतिचिरकालमपि । णिरदिचारं अतिचारमंतरेण । बिहरिसा चिहत्य ? णाणदसणचरित शानं श्रयाने समतायां च । मरण भवपर्यायचिनाशकाले । विराधयित्ता रत्नत्रयपरिणामान्विनाश्य मिथ्यादर्शने ज्ञाने संयमे परिणतो भूत्वा । अतससारिओ अनंतषपर्यायपरिवर्तने उद्यतः । दिछो दृष्टः । देशोनं पूर्वकोटीकाले अतिचाररत्नत्रयप्रवृत्तानामपि मरणकाले ततः प्रच्युतानां मुक्त्यभापं संसारे चिरपरिभ्रमणकथनव्याजेन दर्शयति सूत्रकारः।