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आभासः
मूलाराधना
करनेपर दुर्जनको दोषोंके सिवाय काव्यमें और कौनसी वस्तु प्राप्त होगी। यहां सार शब्दका उत्कृष्ट गुण ऐसा अर्थ ME किया है, प्रकृत विषयमें भी बही अर्थ करना योग्य है"
_ मोहनीय कर्मसे उत्पन्न हुए दोष जिसमें तिलमात्र भी नहीं है ऐसा यथाख्यात चारित्र ही शान और ॥ दर्शनका उत्कृष्ट स्वरूप है.
रागषरहित जो आत्माकी समावस्था उसको चारित्र कहते है. मोहका उदय न होनेसे परिणामोंमे जो निर्मलता पायी जाती है उसीको समावस्था कहते हैं. इस समावस्था को धर्म कहते हैं. इसीफो ही चारित्र कहते हैं. इस विषयमें चारित्त खलु धम्मो' यह गाथा प्रसिद्ध है--
दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय ऐसे मोहकमके दो भेद है. उसमें दर्शनमोहके उदयसे जीवादि तत्वोंपर अश्रद्धान उत्पन्न होता है. इसके शंका, कांक्षा, विचिकित्मा, अन्यष्टि प्रशंसा, अन्यदृष्टिसंस्तब ऐसे उनर भेद हैं. चारित्र मोहसे रागोष होते हैं. इस दो प्रकारके मोहकमसे अलिस ऐसा श्रद्धान और ज्ञान ही यथाख्यात चारित्र है. ऐसा ' णाणस्स देसणम्स य' इस गाथाका अभिप्राण है.
_ यथारख्यात चारित्रका अतिशय फल निर्वाण है. निर्माण शब्दका विनाश ऐमा अर्थ है, जैसे "निबाणः | प्रदीपो नष्ट इनि यावद" दीप निर्वाण हुवा, नष्ट हुवा, यहां निर्वाण शब्दका सामान्य अर्थ नाश ऐसा है. तो
भी प्रकृत विषयमें चारित्रमें जो कर्मनाश करनेका सामर्थ्य उसका प्रयोग यहां निर्वाण शब्दसे किया है. अर्थात् कर्मका नाश करना यह चारित्रका फल है. कर्मका नाश दो प्रकारका है. १ थोरे कर्मोंका नाश २ सर्व कर्मोका नाश. 'णिब्याणभणुत्तर भणियं' अर्थात् अनुत्तर शब्दका निर्वाण शब्दसे संबंध होनेसे सर्व काँका नाश की यहां अभिप्रेत-इष्ट है. यही बघाख्यातका सर्वोत्कृष्ट फल है ऐसा आगममें प्रतिपादन किया है.
अथवा दुःखकी कारण ऐसी क्रियाओंका परिहार होना यह मान और श्रद्धाका फल है, जहां फल रहता है. वहां उसका कारण भी रहता है जैसे घट कार्य है तो उसके साथही मट्टी रूप कारण भी रहता है. उसी तरह जहां चारित्ररूपी फल अर्थात् दुःखोंके कारणोंका परिहार एतत्स्वरूपी फल है उस आत्मामें चारित्रके हेतुरूप अर्थाद फलको उत्पन्न करनेवाले ज्ञान और श्रद्धान भी रहतेही है. अतः चारित्राराधनामें मान और दर्शनाराधनाका अंतर्भाव होता है ऐसा सिद्ध हुवा.
जसे घट कार्य है तो उसके सरस्वरूपी फल है उस आत्मार दर्शनाराधनाका