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मूलाराधना
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- करकल्पास नागनाति दर्शयितुं तत्फलत्वात्तत्र स्वहितैषिणा पेष्टितव्यमिति कुं गाथा सूत्रयंस्तत्रादौ तत्साधकतमत्वाद्यथाख्यातवारित्रस्य स्वरूपं फलं च वकुमिदमाह -
मूलारा-सारोऽतिशयितं रूपं । रागद्वेषरहिते ज्ञानदर्शने एवं थथाख्यातं नाम यथोकमागमे वा चारित्रं भवति इत्यर्थः । सारो अतिशयितं फलं तस्येत्यत्र साध्यसाधनसंबंधे षष्ठीविधानात् । गिब्वाणं विनाशोऽर्थात्कर्मणा मेव । अणुत्तरं न विद्यते अन्यदुत्तरमधिकमस्मादित्यनुत्तरं । यथास्यात चारित्रस्य परममुक्तिः फलमित्यर्थः ।
अर्थ-- रागद्वेष रहित ऐसे ज्ञान व दर्शन ही यथाख्यात चारित्र है. ऐसा आगममें कहा है. अर्थात् यथास्यान चारित्र यह रागद्वेष रहित ऐसे ज्ञान दर्शनका उत्कृष्ट सार है. इस यथाख्यात चारित्रका फल निर्वाण मोक्ष है. सर्व कर्म आत्मासे हट जानारी मोक्ष हैं. यह चारित्रका सर्वोत्कृष्ट फल है. ऐसा इस गाथाका संक्षेपार्थ है.
विशेषार्थ - ' ज्ञान और दर्शनका सार फल यथाख्यात चारित्र है ' इस वाक्यसे ज्ञान और दर्शनले यथाख्यात चारित्र श्रेष्ठ है एसा अर्थ कोई विद्वान मानते हैं परंतु यह मानना असंगत हैं. हम उनको पूछते हैं कि ज्ञान, दर्शन और चारित्र तीनोंको कर्मका नाश करने में निमित्तता हैं या नहीं ? यदि ये तीनो भी निमित नहीं हैं। ऐसा कहोगे तो " सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः " इस सूत्र के साथ विरोध आवेगा. क्योंकि यह मूत्र ज्ञानादिकोंको कर्मनाश करनेमें निमित्त समझता है. यदि ये तीनों भी मोक्षके उपाय है ऐसा कहोगे तो तीनों भी उत्कृष्ट पदार्थ होनेसे सबको ही गुणपना प्राप्त हुवा. अतः चारित्रकी प्रधानता कैसी समझी जायगी ? ज्ञान और दर्शन चरित्र मासिके लिये है परंतु चारित्र उनकी प्राप्तिके लिये आवश्यक नहीं है यह कहना भी योग्य नहीं है. हमे तो ज्ञान और दर्शन चारित्रसे प्राप्त हो जाते है अतः चारित्र साधन और ज्ञान दर्शन साध्य है ऐसा समझते हैं. क्योंकि चारित्रके बिना क्षाविज्ञान- केवलज्ञान और क्षायिक वीतराग सम्यक्त्व प्राप्त नहीं होते. हैं अतः यह सूत्र चारित्रकी मुख्यता बतानेके लिये नहीं है, किंतु यथाख्यातचारित्रका स्वरूप और उसका फल प्रदर्शित करनेके लिये है ऐसा समझना चाहिये ' णाणस्स दंसणस्स य सारो ' यहां सार शब्द उत्कृष्ट गुण इस अर्थ में उपयुक्त हुवा है. इसका उदाहरण आचार्य लिखते है
“ जिसने मत्सरदोषका त्याग किया है ऐसे सज्जनने काव्यका सार भाग अर्थात् उत्कृष्ट गुण ग्रहण
आश्वासः
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