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लाराधना
আস্থা
असंघमके द्वारा बहुत कर्मका ग्रहण करता है. अथया लकडीको छिद्र पाइनेवाला वर्मा जैसा छेद पाडते समय दोरी बांधकर घुमाते हैं उस समय उसकी दोरी एक तरफसे दिली होती हुई भी दूसरी तरफसे उसको दृढ़ बद्ध करती है वैसे सम्यग्दृष्टीका पूर्वबद्ध कर्म निर्जीर्ण होता हुवा उसी समय असंयम द्वारा नवीन कर्म बंध जाता है, अतः असंयत सम्यग्दृष्टीको तप आराधना नहीं होती है, इसलिये तप आराधनामें चारित्राराधना अंतर्भूत नहीं होती है ऐसा समझना चाहिये.
विशेष-गाथामें 'महागुणो' ऐसा शब्द है. यहां गुणशब्दके अनेक अर्थ होते हैं. जैसे रूप, रस, गंध, स्पर्श इनको भी शास्त्रमें गुणसंज्ञा है. गुणोंकी संख्या दिखानेवाला मूत्र इसप्रकार है. 'रूपरमगंधस्पर्शाः मंल्याः परिमाणान यावं संयोगविभागां त्वापरत्वयुद्धयः मुखदुःखन्छाद्वेषप्रयत्नादयः ' क्वचिद् गुणका अर्थ मुख्य ऐसा भी होता है. जैसे-'गुणीभृता वयमत्र नगरे' अर्थात् इस नगरमें हम प्रधान मुख्य है. यहां गुण शब्दकी प्रधान अर्थमें वाचकता है, कचिन गुण शब्दका अर्थ उपकार एया होता है. जैसे गुणोऽनेन कृतः" अर्थात इसने उपकार किया. प्रकृत गाथामें गुणशब्दका अर्थ उपकार ऐसा समझना चाहिये. अविरत सम्यग्दृष्टिका भी तप महागुण नहीं होता है अर्थात् वह कर्म निर्मुलन करनेके लिये समर्थ नहीं होता है. पुनः जो मिध्यादृष्टि है उसका तप मुक्तिकेलिये कैसा कारण होगा ? उसको संवर न होनेसे प्रतिममय नया कर्म आता ही रहेगा अतः उसको मुक्ति नहीं होगी.
शंका-संयम प्राप्त भी हो गया तो भी कर्मनिर्जरा न होनेसे मुक्ति नहीं प्राप्त होगी. अथवा ऐसा भी कह सकते हैं जिसने तपका अभ्यास किया नहीं है ऐसे सम्परदृष्टीको भी केवल चारित्र महोपकारक नहीं होता है. अर्थात् संवरसहित निर्जराको उत्पम नहीं करता है.
उत्तर-आपका कहना ठीक है. परंतु यहां चारित्रकी मुख्यता है अतः चारित्र न होनसे मुक्ति प्राप्त नी होगी ऐसा कहा है. जैसे 'असिश्च्छिनत्ति' अर्थात् तरवार काटती है. इस वाक्यका विमर्श करेंगे तो ऐसा मालूम होगा कि, छेदनेवाले पुरुषके बिना केवल तरवार ही स्वयं छेदनकार्य नहीं करेगी परंतु तरवारकी तीक्षणता, काठिन्य व.रे गुणातिशयको देखकर उसमें छेदनकार्य करनेका कर्तत्व आरोपित करके तरवार तोडती है ऐसा कहते हैं. वैसे चारित्रका वर्णन करनेकी मुख्यता होनेसे चारित्रक त्रिना नप महोपकारक संवर निजराका उत्पादक
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