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FETRIES
मूलाराधना
आशमा
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क्रम उससे व्युत न होकर दृढ रहनेका जो प्रयत्न उसको चारित्र कहते हैं. अर्थात् आगममें जो धर्माचरणके क्रमका
उल्लेख किया है उसके उपर अद्धा रखकर उसका स्वरूप समझ लेनेके अनंतर उस आचरणकमसे क्युत न होकर | उसमें दृढ रहना यह सच्चारित्रका लक्षणा है. ऐसे चारित्रकी आराधना करनेसे ज्ञान, दर्शन, तप इनकी आराधना
अवश्य होती है, चारित्र सम्यग्ज्ञानका कार्य है, और ज्ञान भी सम्यग्दर्शनके प्रभावसे हितकारक होता है. कार्य हमेशा कारणसे अधिनाभावी होता है. जो जो कार्य उत्पन्न होता है वह २ कारणपूर्वक ही होता है. कारणके हिना होती ही है. पाटि ज्ञान व दर्शनका कार्य है व सम्यग्दर्शन शानके साथ अविनाभावी है. उनके विना चारित्रकी उत्पत्ति होती ही नहीं, अतः चारित्राराधनामें सब आराधनाओंका प्रवेश हो जाता है." यहां आचार्य उनके व्याख्यानकी अयुक्तता दिखाते हैं.
आपने जो सच्चारित्रके कारण और लक्षण बताये हैं उनकी यहां आवश्यकता नहीं है, इस गाथामें तो फक्त चारित्र की प्रतिज्ञा ही अर्थात् नामोल्लेख ही किया है. इस प्रतिज्ञाका स्पष्टीकरण और उसके कारणोंका उल्लेख ग्रंथकारने आगेकी दोन गाथाओं में स्वयं किया है अतः उन स्थलोंमें व्याख्याकारको कारणोंका विवेचन करनेका अवसर है. ऐसा ही व्याख्याक्रम शास्त्र में सुना जाता है. 'कादष्वामणमकादम्बयत्ति णादण होदि परिहारो इस गाथामें चारित्रका लक्षण आचार्य कहेंगे, परंतु आपने उत्तर सूत्रानुष्ठान इस व्याख्यानमें किया है. इस गाथासूत्र में चारित्राराधनाकी मुख्यतासे एक ही आराधना है यह प्रतिपाद्य विषय है. इसलिये उत्तरगाथा का विषय यहाँ प्रतिपादन करनेका अवसर कैसा है ? इतर आराधनाका अन्तर्भाव अपने में करनेवाली चारित्राराधनाका निरूपण करते समय चारित्रके स्वरूपका वर्णन करनेके लिये उत्तर गाथा है अतः यह हमारा विवेचन ठीक है ऐसा भी आप नहीं कह सकते, अन्यथा ज्ञानाराधनाको अपने में प्रविष्ट करनेवाली दर्शनाराधना है अतः सम्यग्दर्शन का स्वरूप वर्णन सूत्रकारने क्यों नहीं किया ? यदि कहोगे जैसा उन्होंने चाहा वैसा वर्णन किया है तो यह उत्तर योग्य नहीं है, क्योंकि न्यायका अनुसरण करनेवाले शास्त्रकारकी न्यायविरुद्ध इच्छा रहना ठीक नहीं है. अतः इतने विवचनसे यह सिद्ध होता है कि आचार्य का उद्देश इतर आराधनाओंका चारित्राराधनामें अन्तर्भाव करना यही है, चारित्रका व सम्यग्दर्शनका लक्षण लिखनेका उनका उद्देश नहीं था.