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मूलाराधना
अत्रासः
EATHeadana
है ऐसा मानना पड़ेगा. इसी तरह प्रक्रन प्रकरणमें परिहार शब्द त्यागसामान्य को विषय करता हुवा भी नियतनिश्चित ऐसे त्याज्य विषयके त्यागमें प्रयुक्त समझना चाहिये. नियत ऐसे अनेक त्याज्य विषयोंका त्याग उनका वारंवार ज्ञान हुगलिगा अशक्य है. अतः याजमा मिश्यादान, मिथ्याज्ञान, असंयम, कपाय, अशुभयोग ऐसे अनेक भेद है. तथा इनके भी अनेक विकल्प हैं। उनका सतत त्याग करना चाहिये, परंतु अबको इसके भेद प्रभेद ज्ञात न होनसे वह उनका कैसा त्याग करेगा! शंका-ज्ञानचारित्रका अविनाभाव है यह 'णादण होदि परिहारो' इस वाक्यसे अनुभव में आता है
नन्तर चारित्र होता है. परंतु श्रद्धानका चारित्रके साथ विनामा उत्तर--जो ज्ञान अधवा जो दर्शन है वे दोनों भी चैतन्यरूप होनेसे अविनाभाव युक्त ही है. अर्थात् चैतन्यही ज्ञान है और चैतन्यही दर्शन है. द्रव्यार्थिक नबसे ज्ञान और दर्शनमें चेतनारूप ता होनेसे एकरूपता-अभिन्नपना है. अतः जैसा चारित्रका झानसे अविनाभाव है पैसा सम्यग्दर्शनके साथ भी है. क्योंकि सम्यग्दर्शन ज्ञानसे अभिन्न है. चारिश ही ज्ञान और दर्शन है ऐसी कल्पना करनेसे पूर्वमें शान नंतर चारित्र होता अर्थात् मथम बस्तुका स्वरूप वह य है या ग्राम है इसका निर्णय होता है तदनंतर ग्राषका स्वीकार व त्याज्यका त्याग एतत्स्वरूपी चारित्र होता है. ऐसी जो सूत्रकारकी भेद कल्पना उपर प्रदर्शित की है वह, चारित्रही ज्ञान दर्शनमय है ऐसी कल्पनाके आगे कैसी टिकेगी. यहा विरुद्धता दोष उत्पन होगा तथा 'तं चेव' ऐसा जो नपुंसकलिंग शब्द है बह योग्य न होगा. कारण परिहार शब्दके साथ उसका संबंध आनेसे 'सो चेव हवह गाणं' ऐसा कहना पडेगा. क्योंकि परिहार शब्द पुल्लिगी है. अथवा कर्तव्य क्या चीज है, अकर्तव्य कोनसी वस्तु है इसका जब ज्ञान हो जाता है तब अकर्तव्य-मिथ्यादर्शन, ज्ञान, असंयम, कपाथ, और योग इनका परित्याग होना उसको चारित्र कहते हैं ऐसा माननमे जो परिहरण सामान्य चारित्र है वही ज्ञान, चारित्र एक ही है अतः चारित्राराधनामें ही भेद चादीको अभिमत-मान्य ऐसा जो आराधनाका प्रकार है वह अन्तलीन हो जाता है. इस वास्ते चारित्राराधना एक ही है ऐसा सूत्रार्थ समझना चाहिये.