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लारावना
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आवासः ..
करने योग्य है उसका ज्ञान होना ही वर्जनके लिये उपयुक्त है. अतः यहाँ ऐसा समझना चाहिये कि जो अकार्य है । उसको समझकर छोर देना यह ही चारित्र है. करने योग्य क्या है उसको जाननेकी कुछ जरूरत नहीं है. अतः 'कादम्वमिदिणादण हयदि परिहारो' ऐसा आचार्यका लिखना व्यर्थ है.
उत्तर- इस गाथाका पदसंबंध ऐसा समझना 'कायब्यमिणत्ति पादण हयदि परिहारो' ऐसा प्रथमतः पद संबंध समझना चाहिये. 'अकादव्यानिणत्ति णाग हदि परिहारो, ऐसा दूसरी बार पदसंबंध करना चाहिये.
पहिले इसका निवेनन--परिहार इस शब्दका अर्थ ऐसा समझना. परि-चारों तरफ. जैसे 'परि धावति' यहां समतान् चारो तरफ, धावति दौडता है. ऐसा अर्थ होता है. उसी तरह परिहार शब्दमें परि इस उपसर्गका चारो तरफ ऐसा अर्थ होता है. इधातुका अर्थ इस प्रकरणमें ग्रहण करना ऐसा है. अर्यात् सर्व तरफसे ग्रहण करना ऐसा परिहार शब्दका अर्थ यहां समझना. जैसे 'परिहरति कंबलिका' अर्थात कंवलको ग्रहण करता है. उसी तरह संचरको उत्पन्न करनेवाले गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीपहजय ऐसे कर्तव्यको-करने योग्य कार्यको परिहरति सर्व तरफसे अर्थात् मन, बचन, कायसे ग्रहण करना यह चारित्र है ऐसा प्रथम पदसंबंधका अर्थ है. आस्रव और वैधके कारण ऐसे कार्य अर्थात् आत्माके परिणाम कर्तव्य नहीं है उनका परिहार-त्याग करना चाहिये. अर्थात् यहां ऐसे अयोग्य कर्तव्यका त्याग करना चारित्र कहलाता है. जो पदार्थ त्याज्य है उसका ज्ञान न होने पर भी त्याग हो जाता है, जैसे कोई मनुष्य शत्रुजन जहां रहते हैं ऐसे देशका त्याग करता है. अर्थात् शत्रुका.वहां अस्तित्व न जानता हुवा भी. शत्रुपदेशका त्याग कर अन्य मार्गसे चला जाता है. वैसे यहां भी त्याज्य पदार्थका मान नहीं हो तो भी उसका त्याग करना चाहिये.
शंका-त्याज्य पदार्थको त्याज्य समझकर त्याग होता है ऐसा अविनाभाव यहाँ नहीं रहा. क्योंकि उसका स्वरूप समझे बिना भी त्याग होता है.
उत्तर-आचार्यका यह अभिप्राय है-सामान्य शब्द की भी विशेष में प्रवृत्ति होती है जैसे 'गौनइन्तन्या' गौर्न स्पष्टच्या, इस बास्यमें गोवध नहीं करना चाहिये. गायको स्पर्श नहीं करना चाहिये इन बायोमें गोशब्द सामान्य है, परंतु विशेष अर्थमें भी इसकी प्रवृत्ति होती है. अथा गाईयोंके समूहमे ग्याला बैठा था उसके पास जाकर कोई मनुष्य ' मेरी गौ नूने देखी है क्या? ऐसा पूछने लगा. इस वाक्य में गोशब्द विशिष्ट गायका वाचक