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पलाराधना
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वाक्यमें सर्वे शब्दका प्रकार ऐसा अर्थ है. इसी तरह यहां भी मोक्षोपायके प्रकार जो ज्ञान, दर्शन तप हैं वे यहां ' सव्वं ' इस शब्द से संगृहीत होते हैं. एक चारित्राराधनामें सब आराधनाओंका अन्तर्भाव हो जाता है. शंका- चारित्रको मुख्यता देकर ही क्यों आराधनाका एकत्व आप दर्शाते हैं ? अन्य आराधनाको मुख्यता देकर आराधना की एकता आपने क्यों नहीं दिखायी है ?
इस प्रश्नका उत्तर- इतर आराधना - ज्ञान, दर्शन तप इनमेंसे किसी एक आराधनाकी मुख्यता होने पर भी चाtिoriver भाज्य ही है अर्थात् इतराराधना प्राप्त होगी परंतु चारित्राराधना प्राप्त होगी अथवा नहीं होगी, इसका खुलासा- असंयत सम्यग्दृष्टि ज्ञान और दर्शन ऐसी दोनो आराधनाओंका आराधक हैं. जय आराधकको सम्यग्दर्शन प्राप्त होता है तब उसके ज्ञानमें भी सम्यग्दर्शनके साथ सम्यक्पना प्राप्त होता है. अतएव वह सम्यग्दृष्टि दर्शन ज्ञानका आराधक है. मिथ्यादृष्टि जीव अनशनादि तपोमें उयुक्त होकर भी चारिarrer नहीं होता. कोई सम्यग्दृष्टि जीव व्रतसहित होनेसे ज्ञानादि तीन आराधनाओंका आराधक होता है चारित्रका भी. अतः चारित्राराधनाका इतर आराधनाओं में अविनाभाव नहीं है. जहां चारित्राराधना है वहां चारोंहि आराधनायें है ही परंतु जहां अन्य आराधनायें हैं वहां यह चारित्राराधना रहे या न रहे. अतः चारित्रकी मुख्यतासे आचार्य ने सबका अन्तर्भावकरके एक चारित्राराधनाही कही है.
शंका- क्षायिकवीतराग सम्यक्त्वाराधना और क्षायिकज्ञानाराधना ऐसे दो आराधनाओं में बाकीकी तप और चारित्राराधनायें निश्वयसे अन्तर्भूत होती हैं अतः शेष आराधनाकी प्राप्ति हुई तोभी चारित्राराधना भाज्य है ऐसा क्यों कहा हैं.
उत्तर - क्षायोपशमिक ज्ञान और दर्शनकी अपेक्षासे हमारा उपर्युक्त कथन समझना चाहिये. अर्थात् जहां जहां क्षायोपशमिक ज्ञान व दर्शन है वहां चारित्र होता ही है ऐसा नियम नहीं है. क्योंकि क्षायोपशमिक ज्ञान व दर्शन चतुर्थ गुणस्थानसे शुरू होते हैं. इस गुणस्थान में अविरतिपरिणाम होनेसे चारित्राराधना नहीं है अतः आचार्यका कथन किस अपेक्षासे है यह ध्यानमें आया होगा.
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प्रकृत गाथापर अन्य विद्वानोंका आगे लिखा हुवा व्याख्यान है— चारिताराधणाए इस गाथामें चारित्र शब्दका अर्थ सच्चारित्र ऐसा समझना चाहिये. सम्यग्दर्शन युक्त व सम्यग्ज्ञान निरूपित ऐसा जो आचरण
आश्वासः
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