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उलाराधना
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एकांत रूपसे विवेचन करते हैं. परंतु प्रतिपक्ष धर्मकी अपेक्षा न करनेवाला ऐसा वस्तुका स्वरूपड़ी नहीं बन सकता. अर्थात् परस्पर प्रतिपक्षी धर्मोसे वस्तु सदाही युक्त रहती है, जैसे वस्तुमें एकत्व धर्म रहता है उसी तरह अनेकत्व भी धर्म रहता है. जैसे अस्तित्व धर्म वस्तुमें विद्यमान है वैसे नास्तित्व धर्मभी विद्यमान है. अतएव वस्तु इन दोनो विरुद्ध धर्मो को अपने में स्थान देती हुई अपनी अनंत धर्मात्मकता जाहीर करती है. इस तरह वस्तुमें सापेक्षता है. परंतु जो ज्ञान सापेक्ष वस्तुको निरपेक्षरूप बताता है वह ज्ञान भ्रांत है. जैसे देवदत्तको जो कि जिनदत्तरूप नहीं जिनदच समझना, ऐसी भ्रांतता मिध्यान्यमें रहती है. सच्चे सापेक्षनयमें नहीं रहती है. अतः उसको शुद्ध नय कहते हैं । मिथ्यानय वस्तु कृतकता धर्म दीखने पर उसको सर्वथा अनित्य ही मानने लगता है परंतु वस्तु सर्वथा अनित्य नही है किंतु नित्यानित्यात्मक है. यदि सर्वथा वस्तु नित्यद्दी होती तो उससें जो कार्य करना हो उसको अनुकूल कारण प्राप्त करनेका प्रयत्न व्यर्थ होगा. क्योंकि, कारणोंकी प्राप्ति होनेपर भी वस्तु पूर्वरूप छोडकर कार्यरूपता धारण नहीं करेंगी अतः वस्तु सर्वथा नित्य भी नहीं है। वस्तु नित्यानित्य है ऐसा अनुभवही योग्य हैं.
इस विवेचनका अभिप्राय यह है कि, साक्षात् वस्तुका अनुभव करा देनेवाले शुध्दनय जिनके हैं ऐसे तीर्थकरादिक महापुरुष मिथ्यादृष्टि लोगोंके ज्ञानको अज्ञान कहते हैं. क्योंकि मिध्यादृष्टियोंका ज्ञान वस्तुका थार्थ स्वरूप नहीं दिखाता है. इस वास्ते वह 'ज्ञान' इस नामको अपात्र है, उसको अज्ञान ही कहना चाहिये, यद्यपि ज्ञान शब्द सामान्यवाची होनेसे यथार्थ अयथार्थ रूप दोनों ज्ञानोंको ज्ञान कह सकते हैं तथापि मिथ्यादृष्टीका जो ज्ञान है वह अयथार्थ स्वरूपको दिखानेवाला होनेसे उसके लिए प्रयुक्त ज्ञान शब्दका अर्थ अज्ञान ऐसा ीं करना चाहिये.
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यह शंकाकार ऐसा कहता है--' गइ इंदिये च काये इस गाथामें जो ज्ञान शब्द है उसका क्या अभि माय है ? क्या उसको सामान्य शब्द कहते हैं ?
उत्तर - यहाँ ज्ञान शब्द की ' ज्ञातिज्ञानम् ' ऐसी निरुक्ति है. वहां पदार्थको जानना ऐसा सामान्य अर्थ अभिमत है. मिथ्या या सच्चे ज्ञान की विवक्षा वहां नहीं है.
जो मिथ्यादृष्टि है वह तत्व श्रध्दानरहित होनेसे सम्यग्ज्ञानका आराधक नहीं है. ऐसा इस गाथाका
अभिप्राय है.
आश्वासक
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