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धूलाराचना
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यदि ये कह चुके हैं तो फिर वे पुनः कैसे कहेंगे ? अतः वह कैसा ? ऐसा प्रश्न करना भी अयुक्त है । क्योंकि सूत्रमें चारित्र सिद्धिमें इतर आराधना सिद्धिके क्रमका उपन्यास-विवेचन नहीं किया है। और केवल प्रतिज्ञासे अशको अथवा संशय प्रस्तको वस्तुका स्वरूप ज्ञान नहीं होता है। इस वास्ते यह कैंसा ? ऐसा युक्तिप्रश्न भी यहां पूछना योग्य नहीं है ।
asi area विषयमें और जो विवेचन अन्य विद्वानोंने किया है वह भी योग्य नहीं दीखता - " तेरा प्रकार के चरित्र में सर्वथा प्रयत्न करना यह संयम है. यह संयम बाह्य तपसे अभ्यंतर तप जब सुसंस्कृत होता है तभ प्राप्त होना है, उसके बिना होता नहीं. अतएव संयम बाह्य व अभ्यंतर तपसे सुसंस्कृत होता है ऐसा मानना होगा. " यह संयमका स्वरूप विवेचन योग्य नहीं है. तेरा प्रकारके चारित्रमें प्रयत्न करना उसको संयम कहते हैं ऐसा संयम शब्दका अर्थ नहीं है. अपने जो अभिप्राय कहा हैं उसमें संयम शब्दका प्रयोग किया है ऐसा कहां भी हमारे देखने सुनने में नहीं आया है, शब्दका अर्थ बार बार प्रयोग आनेसे निश्चित होता है परंतु तेरा प्रकारके चारित्रमें प्रयत्न करना यह संयम है ऐसा शब्दप्रयोग कहां भी आचा नहीं हैं.
विदिया यह चरितम्मि ' इस सूत्र में चारित्र शब्द सामान्यचाची है. परंतु आप ' सकलचारित्र ' ऐसा चारित्र शब्दका विशिष्टार्थ क्यों कहते हैं? सामायिक, छेदोपस्थापनादि समस्त चारित्रभेदोंको चारित्राराधना कहते हैं 'पंडिडिदमरणं खीणकसाया मरति केवलिणो इस सूत्र में यथा ख्यात चारित्र समझना इसका आगे वर्णन करेंगे. बाह्य तपके संस्कारसे युक्त ऐसे अभ्यंतर तपके बिना संयम नहीं होता है यह कहना भी युक्तियुक्त नहीं है. क्योंकि बाझ तपके आचरणविना भी आदि भगवंतके शिष्य भद्दणराज वगैरे भरत चक्रवर्तीके पुत्र अन्तरत्नत्रयको पाकर मोक्षको गये हैं ऐसा आगम में प्रसिद्ध उल्लेख है.
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ननु तपस्यायस निर्जरानुक्रमेण निर्जरामुपगच्छन्ति संति कर्माणि यदा निःशेषरण्यपगतानि भवन्ति तदा स्वास्थ्यरूपं निर्वाणमुपजायते ततो निर्वाणस्य कारणं निर्जरय, तस्याथ संपादकं तपस्तप्तो युक्तं दर्शनाराधना तप आराधना चेति द्विविधा माराधनेति गर्दितुं इत्पारेकायां तपो निर्जरां मुकेनुगुणां करोति सति चारित्रे संवरकारिणि नान्यथेति प्रदर्शयति
आश्वासः
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