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राधना
अध्याय
चाहिये. व्रत, गुप्ति, समितिओंको निश्वयसे निर्विघ्न धारण करना अर्थात् चारित्रके साथ ही निर्वाहका संबंध करना चाहिये ऐसा कहना अनुचित है. निस्तरण शब्दका सामर्थ्य ऐमा अर्थ है ऐसा आप कहते हैं परंतु उसको उद्योतन, उद्ययन, निर्वाह इत्यादकोंके साथ जोडनेसे कुछ प्रयोजन सिद्ध होता नहीं. मरणकालमें निमितया सम्यग्दर्शन निर्मल करना उसको उद्योतन कहते हैं ऐसा आप कहरे गड उज्जग और शदावा निर्मिभक्ष्या ऐट: अर्थ नहीं है. आप मरण काल कोनसा समझते है। मनुष्यभव पर्यायका नाश होनेका जो समय उसको यदि मरणकाल समझते हो तो अयुक्त है. कारण मरणकालमें भावनाका उत्कर्ष होता नहीं. मारणान्तिक समुद्रातमें परिणाम मंद होते हैं, यदि मरणकाल शब्दसे भावना कालका अर्थ समझना चाहिए ऐसा कहोगे तो उसका यहाँ ग्रहण किया नहीं है. तया 'वह अपफत होनेसे उसका यहां कुछ प्रयोजन नहीं है. .
मायनाकालकी प्रवृत्ति कैसी होती है. इसका विवेचन करनेके लिए इस शासकी रचना हुई है अतः भावनाकालका यहां ग्रहण हो जाता है ऐसा कहोगे तो योग्य नहीं है. 'दसणणाणचरित्ततवाणुज्जवणमाराहणा मणिया' इस वाक्यमें उज्जवण शब्दका प्रत्येकसे संबंध करना चाहिये उज्जोवणमुज्जवणं' इस गाथामें उज्जचणादिक शब्द समास रहित लिखे है अतः दर्शनादिकोके साथ उद्योतनादिकका प्रत्येकका संबंध होता है ऐसा समझना अर्थात् सम्यग्दर्शनका उद्योत, शानका उद्योत, चारित्रका उद्योत तथा तपका उद्योत. इसी तरह उद्यवनादि शब्दोंका मी सबके साथ संबंध. समझना चाहिये. अन्यथा आचार्य उद्योनादिकोंका समासपूर्वक उल्लेख कर सकते
कि चतुर्विधैयाराधनेत्यानाशायामाह
दुविहा पुण जिणवयणे भणिया आराहणा समासण ॥
सम्मत्तम्मि य पढमा विदिया य हवे चरित्तम्मि || ३ || विजयोदया- दुषिहा समासेण दुविधा आराधणा मणिया इति पदसंबम्धः । आवरणमोहजयाजिनाः शानदर्शनावरणजयासर्वक्षाः सर्वदर्शिनः । मोहपराजयाडीतरागोपाः । सर्वज्ञानां सर्ववर्शिमां वीतरागद्वेषाणां बधगं जिनवचनं । एतेग असत्यवचनकारणामापात 'प्रामाण्यमाख्यातमागमस्य । वक्तुरखानादागद्वेषाभ्यां या प्रवृत्त पच