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इलाराधना
अध्याय
Pitar
अतः उत्पत्तिकी अपेक्षासे पथमता द्वितीयता क्यों कही जाती है ? जो असंयत सम्पन्ष्टचादिजीव है उनका अपेक्षासे क्रमघटना कैसी होंगी ! जिससे उसमें प्रथम द्वितीयता आजा. उत्पत्तिकी अपेक्षासे यदि कहोगे तो हमने उस विषयमें नियम कहा ही है।
अब आगममें जो प्रथम वचन कहे है और जो नंतर कहे है उनकी अपेक्षा लेकर हम यथम तथा द्वितीयकी कल्पना करते हैं क्योंकि आगममें 'असंजदसम्मादडीसयदासंयदापमर्सयदा' ऐसा क्रमपूर्वक उल्लेख है, यह भी कहना योग्य नहीं है. हम इस विषयमें आपको ऐसा पूछते है कि, वह आगमका वचन क्रमका आश्रय लेकर क्यों प्रवृत्त हुवा है ? क्या क्रमके साथ आगम पचनका अविनाभाव है ? परिणाम क्रमसे ही होने चाहिये ऐसा नियम नहीं है. अन्यथा सम्यग्दर्शनरूप तथा विरतिरूप परिणाम एक समयमें किसी कालमें भी नहीं होंगे. परंतु एक कालमें सम्यग्दृष्टि और संयतासंयतरूप परिणाम अनुभवमें आजाते है. यदि एक वक्ता एक समयमें एकही शब्द बोल सकता है, अनेक शब्दोंका उच्चारण नहीं करता है अतः वक्ताके इच्छानुकूल वचनक्रम है तो परिणामों में वचनकृत ही क्रमता सिद्ध हो गई गुणस्थानापेक्षया वहां काम नहीं रहा। यदि सम्यदर्शनादि परिणाम जिसमें उत्पन्न हुए है ऐसे आत्माकी सम्यग्दर्शनादिकोमें अतिशय एकरूपता होनाही आराधना है. और ऐसी आराधनाही प्रस्तुत प्रकरणमें समझनी चाहिये और उसमें प्रथमता या द्विर्तायता है ऐसा यदि कहोगे तो, उत्पत्तिकी अपेक्षासे और गुणस्थानकी अपेक्षासे प्रथमता और द्वितीयताका प्रतिपादन क्यों किया?
दूसरे आचार्य इस सूत्रका उपोद्घात इस प्रकार लिखते हैं-इस आराधनाशासमें आराधनाके चार प्रकारही है ऐसा निश्चय है ? अथवा अन्य भी विकल्प यहां माना गया है 'हो दसरा भी विकल्प है ऐसा कहोगे तो यह आपका कहमा अयोग्य है. 'दसणणाणचरित्तताणमारामणा भणिया' अर्थात् दर्शन, शान, चारित्र तथा तप इन्होंकी आराधना कही है यहां भृतकालकी क्रिया कही गई है अतः सिबू होता है कि यह इस शास्त्रका व्यापार नहीं है । यदि यह इस शास्त्रका व्यापार होता तो वह 'भणिया' इस शब्द प्रयोगके स्थानयर 'भण्णादिति' अर्थात् कहते हैं ऐसा प्रयोग करता. परंतु 'जिणवरणे भणिया दुविहा आराहणा' जिनागममें आराधना दो प्रकारकी कही है ऐसा वचन है अतः संक्षेपसे आराधना कहने के लिए भी इस शास्त्रका व्यापार नहीं है. संक्षपसे विवेचन करनेका भी व्यापार आगमही है.
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POSTHISTAMBHARA