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लाराधना
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श्रद्धा होती है उसको यदि उस विषयमें किसी प्रकारसे अज्ञान होगा तो श्रद्धा नहीं होगी. श्रद्धा रुचि अविषयमें नहीं होती. अर्थात् पदार्थका स्वरूप समझ लेनेपर उसमें मनुष्यकी श्रद्धा उत्पन्न होती है. बुद्धीके द्वारा जिस वस्तुको ज्ञान लिया वह वस्तु श्रद्धाका विषय होती है. अतः श्रद्धाका शानसे अविनाभाव है ऐसा समझना चाहिए.
इस गाथापर दुसरी व्याख्या है वह इस प्रकार है- आत्माका पदार्थाकार परिणमन होना यह मान है. जैसे भूमीका आवरण हट जानेसे पानी उत्पन्न होता है, वैसा धानावरण कर्मका क्षयोपशम हो जानेसे धान उपजता है, ज्ञानमें जो विशुद्धि, सपना, अभिहाने रहती हैं उसकी श्रध्दा सम्यग्दर्शन कहते है. यह आगममें कहे हुए पदार्थोंको विषय करता है. अर्थात् आगम कथित पदार्थ सत्य है ऐसी भावनाको सम्यग्दर्शन कहते हैं. जैसे तलाब मे कीचंड नष्ट होनेसे पानीमें स्वच्छता दीखती है. वैसे दर्शन मोहनीय कर्मका उपशम, क्षय, वा क्षयोपशम होनेसे जो ज्ञानमें निर्मलता उत्पन्न होती है उसको सम्यग्दर्शन कहते हैं. ऐसे सम्यग्दर्शनकी आराधना करनेसे अवश्य ज्ञान की प्राप्ति हो जायगी. जिसका आधार नहीं होगा उसकी सिद्धि नहीं होती है. दर्शन ज्ञानका धर्म हैं. ज्ञान उसका आश्रय है.
उपर्युक्त विवेचनका आचार्य खंडन करते हैं—
यदि मान विषयके आकार से परिणमेगा तो वह स्पर्श, रस गंध वर्णात्मक होगा. ऐसी अवस्था हो जानेपर
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ज्ञान रस, रूप, गंध रहित है. वह दृष्टि गोचर नहीं होता अर्थात् अमूर्तिक है. शब्द रहित तथा आत्माका गुण है " ऐसा आगममें ज्ञानका वर्णन किया है, वह विरुद्ध होगा. तथा एक पदार्थमें विरुद्ध ऐसे नील व पीत परिणाम नहीं रह सकते हैं. एक समयमें दो आकारोंका अनुभव आवेगा. एक बाह्य पदार्थका आकार व दूसरा ज्ञानाकार ऐसे दो आकाशका संवेदन होगा.
ज्ञानमें जो निर्मलता, प्रसन्नता अभिरुचि है उसको श्रद्धा कहना यह भी अयुक्त है. क्योंकि, श्रद्धा चैतन्यका धर्म है, वह ज्ञानका धर्म नहीं है. यदि ज्ञानका धर्म कहोगे तो क्षायोपशमिक ज्ञानका नाश हो जाने पर श्रद्धाका सम्परदर्शनका भी नाश मानना पडेगा. धर्मीका नाश हो जानेसे धर्मका नाश होना अनिवार्य है. चैतन्य विनाश रहित है और सम्यग्दर्शन उसके आश्रयसे रहता है ऐसा यदि मानोगे तो वह ज्ञानका धर्म है ऐसा आपका कहना व्यर्थ है.
अश्वासः
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