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राधना
अध्याय
अथ हिंदी भाषानुषादः। सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप इनके आराधनाका स्वरूप, इस आराधनाके विकल्प अर्थात् भेद, और उपाय, साधक, सहायक तथा आराधनाका फल इतनी बातोंका यह भगवती आराधनाशास्त्र विवेचन करेगा. अर्थात जो विषयोंका हा मानमें बनाम किया है ।
इस शास्त्र के प्रारंभमें स्वतःके तथा श्रोताओंके प्रारब्ध कार्यमें उत्पन्न होनेवाले विनोंके परिहारमें समर्थ ऐसा मंगल और शुभ परिणाम करनेवाले श्री शिवकोटि आचार्जाने उसके उपायभूत यह ऊपरकी गाथा रची है.
यहां पर कोई विद्वान् ऐसा कहते है-पंचेंद्रियोंके विषयोंसे जिसका प्रेम हट गया है. संपूर्ण परिग्रहाँका जिसने त्याग किया है, जिसकी आयु क्षीण हई है, ऐसे साधकको आराधनाका विधान समझाने के लिए यह शास्त्र थाचार्य महाराजने लिखा है. साधकके आराधनासाधनमें निर्विघ्नता हो यह हेतु मनमें धारणकर आचार्यने उपयुक्त मंगलश्लोक रचा है. इस विचारसरणीका खंडन आचार्य इसप्रकार करते हैं-असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत वगैरह गुणस्थानोंके धारक पुरुप आराधक हैं ही अतः पंचेंद्रिय विषयासे जो पराङ्मुख है, जिसने सर्व परिग्रह तजे है, तथा जिसकी आयु क्षीण हुई है ऐसे साधकके लिए यह शास रचा है पह कहना अनुचित है. क्योंकि असंयत सम्यग्दृष्टि तथा संयतासंयत वि संपूर्ण विषयोसे विरक्त नहीं है, तथा वे सर्व परिग्रह त्यागी भी नहीं है. तो भी वे आराधक माने गये है. क्षीणायु व्याक्त ही आराधक हो ऐसा कहना भी योग्य नहीं है. क्यों कि 'अणुलोमा वा ससू चारित्तविणासपा हवे जस्स' इस सूत्रसे अक्षीणायु व्यक्ति भी आराधक होता
है यह सिद्ध होता है. अर्थात् कुटुंबादिक बांधव जिसके चारित्र धर्मका नाश करनेके लिये उद्यमी हुए हों अथवा | कोई शत्रु चारित्रसे भ्रष्ट करनेके लिए उतारू होगया हो तो उस समय अक्षीणायु भी आराधक होता है, इसका आचार्य आगे खुलासा करेंगे ही।
प्रश्न-अनेक शास्त्रों में पंच परमेष्ठिओंको नमस्कार किया है, तथा अईल्परमेष्टिको प्रथम नमस्कार लिखा है परंतु इस आराधना शास्त्रमें अईत् और सिद्ध ऐसे दोही परमेष्टिओंको नमस्कार किया है और वह भी विपरीत प्रकारसे किया है. अर्थात प्रथम सिद्ध परमेष्टिको नमस्कार करनेके अनंतर अहत्परम देवको नमस्कार किया है, ऐसे विपरीत क्रमका क्यों आश्रय किया है !