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संसारचक्रसूत्र
अधुवे असासयम्मि, संसारम्मि दुक्ख पउराए ।
किं नाम होज्ज तं कम्मयं, जेणाऽहं दुग्गइं न गच्छेज्जा ? ॥१॥
अध्रुव, अशाश्वत और दुःख - बहुल संसार में ऐसा कोन - सा कर्म है, जिससे मैं दुर्गति में न जाऊँ ।
सुट्ठवि मग्गिज्जतो, कत्थ वि केलीइ नत्थि जह सारो । इंदिअविसएस तहा, नत्थि सुहं सुट्ट वि गविट्टं ॥२॥
बहुत खोजने पर भी जैसे केले के पेड़ में कोई सार दिखाई नहीं देता, वैसे ही इन्द्रिय-विषयों में भी कोई सुख दिखाई नहीं देता । जह कच्छुल्लो कच्छु, कंडुयमाणो दुहं मुणइ सुक्खं । मोहाउरा मणुस्सा, तह कामदुहं सुहं बिंति ॥ ३ ॥
खुजली का रोगी जैसे खुलजाने पर दुःख को भी सुख मानता है, वैसे ही मोहातुर मनुष्य कामजन्य दुःख को सुख मानता है । जाणिज्जइ चिन्तिज्जइ, जम्मजरामरणसंभवं दुक्खं । न य विसएस विरज्जई, अहो सुबद्धो कवडगंठी ॥४॥
जीव जन्म, जरा (बुढ़ापा ) और मरण से होने वाले दुःख को जानता है, उसका विचार भी करता है, किन्तु विषयों से विरक्त नहीं हो पाता । अहो ! माया की गाँठ कितनी सुदृढ होती है ।
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