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रागे दोसे य दो पावे, पावकम्म पवतणे । जे भिक्खू संभई निच्चं, से न अच्छइ मंडले ॥५॥
राग और द्वेष-ये दो पाप पापकर्म के प्रवर्तक हैं । जो सदा इनका निरोध करता है वह संसार-मंडल से मुक्त हो जाता है । जहा कुम्मे सअंगाई, सए देहे समाहरे । एवं पावाई मेहावी, अज्झप्पेण समाहरे ॥६॥
जैसे कछुआ अपने अंगों को अपने शरीर में समेट लेता है, वैसे ही मेधावी पुरुष पापों को अध्यात्म के द्वार समेट लेता है । से जाणमजाणं वा, कट्टे आहम्मिअं पयं । संवरे खिप्पमप्पाणं, बीय तं न समायरे ॥७॥
जान या अनजान में कोई अधर्म कार्य हो जाय तो अपनी आत्मा को उससे तुरन्त हटा लेना चाहिए, फिर दूसरी बार वह कार्य न किया जाये। धम्माराम चरे भिक्खू, धिइमं धम्मसारही । धम्मारामरए दंते, बंभचेर-समाहिए ॥८॥
धैर्यवान्, धर्म के रथ को चलाने वाला, धर्म के आराम में रत, दान्त और ब्रह्मचर्य में चित्त का समाधान पाने वाला भिक्षु धर्म के आराम में विचरण करे।
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