________________
विसर्जन संहार मुद्रा (१)
ग्राह्यस्योपरि हस्तं प्रसार्य कनिष्ठिकादि-तर्जन्यन्तानामङ्गुलीनां क्रमसंकोचनेनाङ्गुष्ठमूलानयनात् संहारमुद्रा । विसर्जनमुद्रेयम् ।
अर्थ : ग्रहण करने योग्य (जो सामग्री प्रतिष्ठा पूजादि में उपयोग में आनेवाली है) वस्तुओं के ऊपर हाथ को फैलाना, फिर कनिष्ठिका से लेकर तर्जनी पर्यन्त अंगुलियों को क्रम से संकुचित करते हुए अंगुष्ठ के मूल भाग तक अंगुलियों को ले जाना संहार मुद्रा है । यह विसर्जन की मुद्रा है | उपयोग : पारंपरिक सात्त्विक अनुष्ठान में आमंत्रिततत्त्वों का विसर्जन ।
• 30
Jain Education International For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org