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णाहं होमि परेसिं, ण मे परे संति णाणमहमेक्को ।
इदि जो झायदि झाणे, से अप्पाण हवदि झादा ॥ ६ ॥
वही श्रमण आत्मा का ध्याता है जो ध्यान में चिन्तवन करता है कि “मैं न 'पर' का हूँ, न 'पर' पदार्थ या भाव मेरे हैं, मैं तो एक शुद्धबुद्ध ज्ञानमय चैतन्य हूँ ।'
णातीतमट्ठे ण य आगमिस्सं, अट्टं नियच्छंति तहागया उ । विधूतकप्पे एयाणुपस्सी, णिज्झोसइत्ता खवगे महेसी ॥७॥
तथागत अतीत और भविष्य के अर्थ को नहीं देखते । कल्पना-मुक्त महर्षि वर्तमान का अनुपश्यी हो, कर्म - शरीर का शोषण कर उसे क्षीण कर डालता है ।
मा चिट्ठह मा जंप, मा चिन्तह किं वि जेण होइ थिये । अप्पा अप्पम्मि रओ, इणमेव परं हवे झाणं ॥ ८ ॥
हे ध्याता ! तू न तो शरीर से कोई चेष्टा कर, न वाणी से कुछ बोल और न मन से कुछ चिन्तन कर, इस प्रकार त्रियोग का निरोध करने से तू स्थिर हो जाएगा — तेरी आत्मा आत्मरत हो जायेगी । यही परम ध्यान है ।
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