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नये लाभ के लिए जीवन को सुरक्षित रखे । जब जीवन तथा देह से लाभ होता हुआ दिखाई न दे तो परिज्ञानपूर्वक शरीर का त्याग कर दे ।
संलेहणाय दुविहा, अब्भितरिया य बाहिरा चेव । अभितरिया कसाए, बाहिरिया होइ य सरीरे ॥३॥
संलेखना दो प्रकार की है— आभ्यन्तर और बाह्य । कषायों को कृश करना आभ्यन्तर संलेखना है और शरीरं को कृश करना बाह्य संलेखना । न वि कारणं तणमओ संथारो, न वि य फासुया भूमी । अप्पा खलु संथारो, होइ विसुद्धो मणो जस्सो ॥४॥
जिसका मन विशुद्ध है, उसका शय्या न तो तृणमय है और न प्रासुक भूमि है । उसकी आत्मा ही उसका संस्तारक है ।
सम्मर्द्दसणरत्ता, अनियाणा सुक्कलेसमोगाढा । इय जे मरंति जीवा, तेसिं सुलहा भवे बोही ॥५॥
जो जीव सम्यग्दर्शन के अनुरागी होकर, निदान - रहित तथा शुक्ललेश्यापूर्वक मरण को प्राप्त होते हैं, उनके लिए बोधि की प्राप्ति सुलभ होती है ।
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