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आहच्च सवणं लद्धं, सद्धा परमदुल्लहा । सोच्चा ने आउयं मग्गं, बहवे परिभस्सई ॥५॥ __कदाचित् धर्म का श्रवण हो भी जाये, तो उस पर श्रद्धा होना परम, दुर्लभ है । क्योंकि बहुत-से लोग न्यायसंगत मोक्षमार्ग का श्रवण करके भी उससे विचलित हो जाते हैं । सुइं च लद्धं सद्धं च, वीरियं पुण दुल्लहं । बहवे रोयमाणा वि, नो एणं पडिवज्जए ॥६॥
धर्म-श्रवण तथा श्रद्धा हो जाने पर भी पुरुषार्थ होना और दुर्लभ है। बहुत से लोग संयम में अभिरुचि रखते हुए भी उसे सम्यक्-रूपेण स्वीकार नहीं कर पाते ।
संलेखनासूत्र
सरीरमाहु नाव त्ति, जीवो वुच्चइ नाविओ। संसारो अण्णवो वुत्तो, जं तरंति महेसिणो ॥१॥
शरीर को नाव कहा गया है और जीव को नाविक । यह संसार समुद्र है, जिसे महर्षि जन तैर जाते हैं । चरे पयाइं परिसंकमाणो, जं किंचि पासं इह मनमाणो । लाभंतरे जीविय वूहइत्ता, पच्चा परिणाय मलावधंसी ॥२॥
साधक पग-पग पर दोषों की आशंका (सम्भावना) को ध्यान में रखकर चले । छोटे-से-छोटे दोष को भी पाश समझे, उससे सावधान रहे । नये
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