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व्यथित, नदी की रुकावट, मरी (प्लेग) आदि रोग तथा दुर्भिक्ष से पीड़ित हैं, उनकी सार-सम्हाल, लेवा तथा रक्षा करना वैयावृत्य है। पूयादिसु णिरवेक्खो, जिण-सत्थं जो पढेइ भत्तीए । कम्ममल-सोहणटुं, सुयलाहो सुहयरो तस्स ॥१०॥
आदर-सत्कार की अपेक्षा से रहित होकर जो कर्मरूपी मल को धोने के लिए भक्तिपूर्वक जिनशास्त्रों को पढ़ता है, उसका श्रुतलाभ स्व-पर सुखकारी होता है। सज्झायं जाणंतो, पंचिंदियसंवुडो तिगुत्तो य । होइ य एकग्गमणो, विणएण समाहिओ साहू ॥११॥ __ स्वाध्यायी पुरुष पाँचों इन्द्रियों से संवृत, तीन गुप्तियों से युक्त, विनय से समाहित तथा एकाग्रमन होता है । णाणेण ज्झाणसिज्झी, झाणादो सव्वकम्मणिज्जरणं । णिज्जरणफलं मोक्खं, णाणब्भासं तदो कुज्जा ॥१२॥ ___ ज्ञान से ध्यान की सिद्धि होती है। ध्यान से सब कर्मों की निर्जरा (क्षय) होती है। निर्जरा का फल मोक्ष है। अतः सतत ज्ञानाभ्यास करना चाहिए। नाणमेगग्गचित्तो अ, ठिओ अ ठावयई परं । सुआणि अ अहिज्जित्ता, रओ सुअसमाहिए ॥१३॥ __ अध्ययन के द्वारा व्यक्ति को ज्ञान और चित्त की एकाग्रता प्राप्त होती है। वह स्वयं धर्म में स्थित होता है और दूसरों को भी स्थिर करता है तथा अनेक प्रकार के श्रुत का अध्ययन कर वह श्रुतसमाधि में रत हो जाता है।
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