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श्रमणधर्मसूत्र
सीह-गय-वसह-मिय-पसु, मारुद-सूरूवहि-मंदरिंदु-मणी । खिदि-उरगंवरसरिसा, परम-पय-विमग्गया साहू ॥१॥
परमपद की खोज में निरत साधु सिंह के समान पराक्रमी, हाथी के समान स्वाभिमानी, वृषभ के समान भद्र, मृग के समान सरल, पशु के समान निरीह, वायु के समान निस्संग, सूर्य के समान तेजस्वी, सागर के समान गम्भीर, मेरु के समान निश्चल, चन्द्रमा के समान शीतल, मणि के समान कांतिमान, पृथ्वी के समान सहिष्णु, सर्प के समान अनियत-आश्रयी तथा आकाश के समान निरवलम्बी होते हैं । (साधु की ये चौदह उपमाएँ
हैं ।)
न वि मुण्डिएण समणो, न ओंकारेण बंभणो। न मुणी रण्णवासेणं, कुसचीरेण न तावसो ॥२॥
केवल सिर मुंडाने से कोई श्रमण नहीं होता, ओम् का जप करने से कोई ब्राह्मण नहीं होता, अरण्य में रहने से कोई मुनि नहीं होता और कुशचीवर धारण करने से कोई तपस्वी नहीं होता । समयाए समणो होइ, बंभचेरेण बंभणो । नाणेण य मुणी होई, तवेण होइ तावसो ॥३॥
वह समता से श्रमण होता है, ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण, ज्ञान से मुनि और तप से तपस्वी होता है ।
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