________________
प्रत्याख्यान (नियम) है और आत्मा ही संयम और योग है। अर्थात् ये सब आत्मरूप ही हैं। जेण तच्चं विबुज्झेज्ज, जेण चित्तं णिरुज्झदि । जेण अत्ता विसुज्झेज्ज, तं णाणं जिणसासणे ॥३॥
जिससे तत्त्व का बोध होता है, चित्त का निरोध होता है तथा आत्मा विशुद्ध होती है, उसे जिनशासन में ज्ञान कहा गया है । सुबहु पि सुयमहीयं, किं काहिइ चरणविप्पहीणस्स । अंधस्स जह पलित्ता, दीवसयसहस्सकोडी वि ॥४॥
चारित्र-शून्य पुरुष का विपुल शास्त्राध्ययन भी वैसे ही व्यर्थ है, जैसे अन्धे के आगे लाखों-करोड़ों दीपक जलाना । अब्भंतरसोधीए, बाहिरसोधी वि होदि णियमेण । अब्भंतर-दोसेण हु, कुणदि णरो बाहिरे दोसे ॥५॥
आभ्यन्तर-शुद्धि होने पर बाह्य-शुद्धि भी नियमतः होती ही है । आभ्यन्तर-दोष से ही मनुष्य बाह्य दोष करता है । मदमाणमायलोह-विवज्जियभावो दु भावसुद्धि त्ति । परिकहियं भव्वाणं, लोयालोयप्पदरिसीहिं ॥६॥ __ मद, मान, माया और लोभ से रहित भाव ही भावशुद्धि है, ऐसा लोकालोक के ज्ञाता-द्रष्टा सर्वज्ञदेव का भव्य जीवों के लिए उपदेश है।
• १५० . Jain Education International For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org