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अप्रमादसूत्र
सीतंति सुवंताणं, अत्था पुरिसाण लोगसारत्था । तम्हा जागरमाणा, विधुणध पोराणयं कम्मं ॥ १ ॥
जो पुरुष सोते हैं उनके जगत् में सारभूत अर्थ नष्ट हो जाते हैं । अतः सतत आत्म-जागृत रहकर पूर्वार्जित कर्मों को नष्ट करो । जागरिया धम्मणं, अहम्मीणं च सुत्तया सेया । वच्छाहिवभगिणीए, अकहिंसु जिणो जयंतीए ॥ २ ॥
'धार्मिकों का जागना श्रेयस्कर है और अधार्मिकों का सोना' - ऐसा भगवान् महावीर ने वत्सदेश के राजा शतानीक की बहन जयन्ती से कहा
था ।
सव्वओ पमत्तस्स भयं । सव्वओ अप्पमत्तस्स नत्थि भयं ॥३॥ प्रमत्त को सब ओर से भय होता है । अप्रमत्त को कोई भय नहीं होता । आदाणे णिक्खेवे, वोसिरणे ठाणगमणसयणेसु । सव्वत्थ अप्पमत्तो, दयावरो होदु हु अहिंसओ ॥४॥
वस्तुओं को उठाने रखने में, मल-मूत्र का त्याग करने में, बैठने तथा चलने-फिरने में, और शयन करने में जो दयालु पुरुष सदा अप्रमादी अर्थात् विवेकशील रहता है, वह निश्चय ही अहिंसक है ।
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