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रागद्दोसपमत्तो, इंदियवसओ करेइ कम्माई | आसवदारेहिं अवि-गुहेहिं तिविहेण करणेणं ॥४॥
राग-द्वेष से प्रमत्त बना जीव इन्द्रियाधीन होता है। उसके आस्रवद्वार ( कर्मद्वार) बराबर खुले रहने के कारण मन-वचन काया के द्वारा निरन्तर कर्म करता रहता है ।
सव्वभूयऽप्यभूयस्स, सम्मं भूयाइं पासओ । पिहियासवस्स दंतस्स, पावं कम्मं न बंधई ॥ ५ ॥
जो समस्त प्राणियों को आत्मवत् देखता है और जिसने कर्मास्रव के सारे द्वार बन्द कर दिये हैं, उस संयमी को पापकर्म का बन्ध नहीं होता । सेणावइम्मि णिहए, जहा सेणा पणस्सई ।
एवं कम्माणि णस्संति, मोहणिज्जे खयं गए ॥ ६ ॥
जैसे सेनापति के मारे जाने पर सेना नष्ट हो जाती है, वैसे ही एक मोहनीय कर्म के क्षय होने पर समस्त कर्म सहज ही नष्ट हो जाते हैं ।
राग - परिहारसूत्र
रागो य दोसो वि य कम्मबीयं, कम्मं च मोहप्पभवं वयंति । कम्मं च जाई मरणस्स मूलं, दुक्खं च जाईमरणं वयंति ॥ १ ॥
राग और द्वेष कर्म के बीज हैं। कर्म मोह से उत्पन्न होता है। वह जन्म-मरण का मूल हैं । जन्म-मरण को दुःख का मूल कहा गया है।
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