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जम्मं दुक्खं जरा दुक्खं, रोगा य मरणाणि य । अहो दुक्खो हु संसारो, जत्थ कीसन्ति जंतवो ॥५॥
जन्म दुःख है, जरा दुःख है, रोग और मृत्यु दुःख है । अहो ! संसार दुःख ही है, जिसमें जीव क्लेश पा रहे हैं ।
कर्मसूत्र
जं जं समयं जीवो, आविसइ जेण जेण भावेण ।
सो तंमि तंमि समए, सुहासुहं बंधए कम्मं ॥१॥
जिस समय जीव जैसे भाव करता है, वह उस समय वैसे ही शुभअशुभ कर्मों का बन्ध करता है ।
न तस्स दुक्खं विभयन्ति नाइओ, न मित्तवग्गा न सुया न बंधवा । एक्को सयं पच्चणुहोड़ दुक्खं, कत्तारमेव अणुजाड़ कम्म ॥२॥
जाति, मित्र- वर्ग, पुत्र और बान्धव उसका दुःख नहीं बँटा सकते । वह स्वयं अकेला दुःख का अनुभव करता है । क्योंकि कर्म कर्त्ता का अनुगमन करता है ।
कम्मं चिणंति सवसा, तस्सुदयम्मि उ परव्वसा होंति । रुक्खं दुरुहइ, सवसो, विगलइ स परव्वसो तत्तो ॥ ३ ॥
जीव कर्म बाँधने में स्वतन्त्र है, परन्तु उस कर्म का उदय होने पर भोगने में उसके अधीन हो जाता है । जैसे कोई पुरुष स्वेच्छा से वृक्ष पर तो चढ़ जाता है, किन्तु प्रमादवश नीचे गिरते समय परवश हो जाता है I
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