Book Title: Mahopnishad
Author(s): Vijaykalyanbodhisuri
Publisher: Jinshasan Aradhana Trust

View full book text
Previous | Next

Page 18
________________ महोपनिषद् अध्यात्मदर्शना नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः - इति / अत एव सर्वमन्तः परित्यक्तमित्यत्र स्वरूपातिरिक्ताशेषपरित्याग एव तात्पर्य बोध्यम् / तथा च स्वरूपमात्रस्थितेर्मुक्तिः, उक्तन्यायात् / एतदेव प्रकारान्तरतः प्रस्तौति यावती दृश्यकलना, सकलेयं विलोक्यते / सा येन सुष्ठ सन्त्यक्ता, स जीवन्मुक्त उच्यते // 2-53 // दृष्टदृष्टिमात्रपर्यवसानस्यैव मोक्षपर्यायत्वात, एवमेव साक्षितासिद्धः, दृश्यतादात्म्यस्यैव भवबम्भ्रमणबीजत्वाच्च, तदाह - दृष्टदृङ्मात्रता मुक्तिः, दृश्यैकात्म्यं भवभ्रमः - इति / एतदेव निदर्शयति कट्वम्ललवणं तिक्तममृष्टं मृष्टमेव च। सममेव च यो भुङ्क्ते, स जीवन्मुक्त उच्यते // 2-54 // सममेव - मिथो भेदप्रतिभासलेशमप्यन्तरेण, विषमप्रतिभासस्यैव वस्तुतः संसारात्मकत्वात् / तस्मात् जन्मस्थितिविनाशेषु, सोदयास्तमयेषु च / / सममेव मनो यस्य, स जीवन्मुक्त उच्यते // 2-59 // परमसाम्यसमाधिनिदानं हि - उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत् (तत्त्वार्थसूत्रे ) - इति सत्त्वलक्षणम्, तच्च सन्मात्रे

Loading...

Page Navigation
1 ... 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142